काश (दिव्या माथुर)
काव्य साहित्य | कविता दिव्या माथुर28 Nov 2007
काश कि उस मनहूस सुबह
मैं सीढ़ी से गिर जाती
मेरी तीमारदारी में तुम्हें
दफ़्तर की देर हो जाती
हलका सा दिल का दौरा
या तुम्हें सुबह पड़ जाता
आराम करो पूरा ह्फ़्ता
डाक्टर साग्रह कह जाता
‘स्कूल छोड़कर आओ पापा’
रघु ही उस दिन ज़िद करता
लाडली तुम्हारी गोद में चढ़
गंदा कर देती सूट नया
सजधज के मेनका सी मैं
काश कि पाती तुम्हें रिझा
काश तुम्हारा मचलके दिल
द्फ़्तर जाने को न करता
काश कि सूरज देर से उगता
काश अलारम न बजता
काश सुबह हम देर से उठते
काश ये घर न उजड़ता।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
पुस्तक चर्चा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं