कैसे उड़ें गगन
काव्य साहित्य | कविता लक्ष्मीनारायण गुप्ता7 Dec 2014
हलके मन से तन भारी,
कैसे उड़ें गगन।
पैर मिले, चल लेते हैं
लेकर भारी तन।
मन ही मन, हँस कर अपने
भूले कष्ट, विघन।
नौ माह तक माँ गर्भ में
मुट्ठी कसा बदन।
आँखें जब से खुलीं जगत में
तब से जगा रुदन।
सोते में हँसना-रोना
शैशव के स्पन्दन।
मृत्यु तक चैतन्य मन को
बाँधे रखे सघन।
तन हलकाने की इच्छा
करती रही हवन।
हर बार, होम ही हारा
जितने किये जतन।
हलके मन से तन भारी,
कैसे उड़ें गगन।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
"पहर को “पिघलना” नहीं सिखाया तुमने
कविता | पूनम चन्द्रा ’मनु’सदियों से एक करवट ही बैठा है ... बस बर्फ…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
{{user_name}} {{date_added}}
{{comment}}