कल और आज
शायरी | नज़्म आले अहमद सरूर28 Apr 2007
वो भी क्या लोग थे आसां थीं राहें जिनकी
बन्द आँखें किए स्मित चले जाते थे
अक़्ल-औ-दिल ख़्वाब-औ-हक़ीक़त की ना उलझन ना ख़लिश
मुख़त्लिफ़ जल्वे निगाहों को ना बहलाते थे
ख़लिश=चुभन, पीड़ा; मुख़त्लिफ़=विभिन्न
इश्क़ सादा भी था, बख़ुद भी, जनूँ-पेशा भी
हुस्न को अपनी अदाओं पे हिजाब आता था
फूल खिलते थे तो फूलोम में नशा होता था
हिजाब=लाज
चाँदनी कैफ़-असर रूह-आफ़ज़ा होती थी
अब्र आता था तो बदमस्त भी हो जाते थे
दिन में शोरिश भी हुआ करती थी, हंगामे भी
रात की गोद में मुँह ढाँप के सो जाते थे
कैफ़-असर=मादक; रूह-आफ़ज़ा=आत्मा को ताज़ा करने वाली
अब्र=बादल; शोरिश=हलचल
नरम राओ वक़्त के धारे पे सफ़ीं थे रवां
साहिल-ओ-बह्र के आईनां बदलते थे कभी
नाख़ुदाओं पे भरोसा था मुक़्द्दर पे यक़ीं
चादर-ए-आब से तूफ़ां ना उबलते थे कभी
नरम राओ=मन्द गति; सफ़ीना=नाव; साहिल=किनारा; बह्र=सागर
आईन=नियम; नाख़ुदा=मल्लाह; मुक़्द्दर=भाग्य; आब=पानी
हम कि तुफ़ानों के पाले भी सताये भी हैं
बर्क़-औ-वारां में वो ही शामें जलाये कैसे
ये जो आतिश-कदा दुनिया में भड़क उठा है
आँसुओं में उसे हर बार बुझायें कैसे
बर्क़=तड़ित; बारां=तूफ़ान; आतिश-कदा=अग्नि काण्ड
कर दिया बर्क़-औ-बुख़ारात ने महशर बर्पा
अपने दफ़्तर में लिताफ़त के सिवा कुछ भी नहीं
घिर गये वक़्त की बे-रहम कशाकश में मगर
पास तह्ज़ीब की दौलत के सिवा कुछ भी नहीं
बुख़रात=गरमी, उच्च ताप; महशर=निर्णय दिवस
लताफ़त=सुहानापन, सुघड़्ता; बे-रहम=अदय
कशाकश=संघर्ष; तहज़ीब=सभ्यता, शिष्टता
ये अन्धेरा ये तलातुम ये हवाओं का ख़रोश
इस में तारों की सुबुक नर्म ज़िया क्या करती
तल्ख़ी-ए-ज़ीस्त से कड़वा हुआ आशिक का मिज़ाज
निगाह-ए-यार की मासूम अदा क्या करती
तलातुम=विद्रोह; ख़रोश=चीख, उच्च स्वर; सुबुक=कोमल;
ज़िया=चमक; तल्ख़ी-ए-ज़ीस्त=जीवन की कड़वाहट
सफ़र आसां था ता मन्ज़िल भी बड़ी रोशन थी
आज किस दर्ज़ा पुर-असरार हैं राहें अपनी
कितनी परछाइयाँ आती हैं तजली बन कर
कितने जल्वों से उलझती हैं निगाहें अपनी
दर्जा=माप; पुर-असरार=रहस्यमयी, विषम, उलझनदार; तजली=तीव्र प्रकाश
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