कलयुग की मार
काव्य साहित्य | कविता आचार्य संदीप कुमार त्यागी ’दीप’31 May 2008
ज़िन्दगी मर गई बस मौत यहाँ ज़िन्दा है,
क्या वो अल्लाह ही इस दुनिया का कारिन्दा है।
चर्चा दीनों-ईमान की ज़मीं पे मत करना,
मज़हबी हरकतों से आसमां शर्मिन्दा है।
मुल्क के मुल्क जल रहे जिहादी भट्टी में,
मुर्दों की याद में दफनाए ज़िन्दा मट्टी में।
कहीं पे लाश अरे! मिल सकी नहीं पुख़्ता,
लहू में लोथड़े सने हैं, हाय! देख दिल दुखता॥
हाथ हैं पैर हैं मगर कहीं नहीं सर है,
धड़ ही धड़ है लुढ़क रहा कहीं जमीं पर है,
मारे दहशत के बना आदमी पुलिन्दा है॥
गुण्डे बदमाश वहशी मन्दिरों के हिस्से हैं,
कलयुगी साधुओं के पाप भरे क़िस्से हैं।
भोली जनता को खुलेआम ख़ूब ठगते हैं,
हुक्म से इनके ही भगवान सोते-जगते हैं।
धर्म के नाम पर घटिया सियासती धन्धे,
रहनुमा कर रहे हैं पाप गन्दे से गन्दे।
बैठा इन्साफ़ की हर कुर्सी पे दरिन्दा है॥
मछलियों-सी तड़पती औरतें लिए अस्मत,
निगलें घड़ियाल घर के हाय! फूटी है क़िस्मत।
ताक में बैठे हैं बगुले बहुत बाहर जल के,
आवें कैसे किनारे पर उछलके या छलके?
रोज़ है सोख़्ता कानून का सूरज पानी,
जाल में मुश्किलों के फँसी मछली रानी।
सोचती है - बहुत अच्छा है, जो परिन्दा है॥
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अनुपमा
- अभिनन्दन
- उद्बोधन:आध्यात्मिक
- कलयुग की मार
- कहाँ भारतीयपन
- जवाँ भिखारिन-सी
- जाग मनवा जाग
- जीवन में प्रेम संजीवन है
- तुम्हारे प्यार से
- तेरी मर्ज़ी
- प्रेम की व्युत्पत्ति
- प्रेम धुर से जुड़ा जीवन धरम
- मधुरिम मधुरिम हो लें
- माँ! शारदे तुमको नमन
- राष्ट्रभाषा गान
- संन्यासिनी-सी साँझ
- सदियों तक पूजे जाते हैं
- हसीं मौसम
- हिन्दी महिमा
हास्य-व्यंग्य कविता
गीत-नवगीत
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं