मन की ख़लिश
काव्य साहित्य | कविता जावेद आलम खान15 Nov 2019
बंद कमरों में ग़रीबी के विमर्श
उबलते हैं खौलती चाय की तरह
और फिर प्लेट में सजाकर
सौंप दिए जाते हैं पूंजीपतियों को
स्वाद बदलने के लिए
श्रम का गायक
सर्वहारा का नायक साम्यवाद
सिमट गया किताबों में
खेत खलिहान छोड़कर
बदहाली में आँसू बहाती ईमानदारी
निर्वासित है राजनीतिक फलक से
माणिक सरकार की तरह
देशभक्ति नाम है उस बाँदी का
जो हुकुम बजा लाने के लिए
हाथ बाँधे खड़ी है शाह के सामने
जैसे कोई अभिशप्त अप्सरा
जिसके वास्तविक सौंदर्य को
नज़र से बचाने के लिए
क़ैद कर दिया गया
नारों के खोल में
बदहवास सी हरेक ज़िन्दगी
टकराती, गिरती, उठती, ढूँढ़ती है
अपना अपना सूरज
अपनीअपनी रौशनी
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