मन में उम्मीदों की मशाल जलाये रखना
काव्य साहित्य | कविता कुणाल बरडिया1 Dec 2019
जब नीरस हो हर पल
और ठहरा सा हो मन
आँखों से ओझल हो
उम्मीदों की किरण,
जब अपनों से ही ग़म हो,
और अपनों का ही वार,
रिश्तों की उलझनों में
जब मिलने लगे हार
जब निराशा से लगने लगे
व्यर्थ सा जीवन
और इसे ख़त्म करने को
आतुर हो काल का हर क्षण
तब कुछ पल भावनाओं को भूल
एक काम और करना
अंत स्वीकार करने से पहले
यह भी ज़रूर गौर करना
कि अपने ही आस पास-
खंडित, अनाथ, मजबूर,
निर्धन, शोषित,
कुछ अपनों से धिक्कारित,
कुरीतिवश अछूत घोषित
माँ, बाप, भाई, बहन
और परिवार से अनजान
न अक्षर का ज्ञान,
न अस्तित्व की पहचान
भूख, प्यास, घर, वस्त्र के
अभाव में तड़पते लोग बहुत हैं
प्यार के एक एक पल को
तरसते लोग बहुत हैं
याद करना उन
अनगिनित लोगों के बारे में
जिनका कोई भी नहीं
सुनसान गलियारों में
एहसास लेना कि
क्या निजी समस्या
अपने समाज से भी बड़ी है?
क्या मात्र स्वयं के लिए ही
जीवन की साँसें बनी हैं?
निज स्वार्थ को त्याग
एक प्रण नया रखना
ख़ुद के हित से ऊपर
समाज और राष्ट्र को रखना
निजी उलझनें भी ज़रूर
दूर होंगी किसी एक दिन,
मन में उम्मीदों की
मशाल जलाये रखना
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