मेरा संकल्प
काव्य साहित्य | कविता मोहम्मद जहाँगीर ’जहान’1 Mar 2020
कितनी कोशिश की है उसने, मुझको रोज़ गिराने की;
मैं ने भी संकल्प लिया है, नित आगे बढ़ते जाना है।
ढील दी है आख़िर कितनी, मैं ने अपने सपनों को?
मंज़िल का कोई ठौर नहीं है, पीछे सारा ज़माना है।
हिंदू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद, इस देश में कैसे मुद्दे हैं?
आती-जाती सरकारें हैं, फिर मीडिया क्यों बेगाना है?
झुकना सीखा है न हमने, रक्षक देश के सैनिक हैं;
मानव समझ करते हैं नसीहत, हम से नहीं टकराना है।
सियासत अपनी न चमकाओ, संसद में ऐ रहने वालो!
कितने पहले चले गये हैं; तुमको भी कल जाना है।
रंग-बिरंगे, हरे-केसरी, फूलों से महके यह गुलशन;
जाति-पाँति को छोड़ो यारो, यह तो चुनावी तराना है।
दिवाली पर दीप जलायें और सब मिलें ईद पर खूब गले;
'जहान' मानवता का यह पैग़ाम, जन-जन तक पहुँचाना है।
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