अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

नवोदित रचनाकारों के प्रेरणास्रोत थे डॉ. बलदेव

26 सितंबर 2019, पुण्यतिथि पर विशेष

छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण साहित्यकार व शिक्षाविद् डॉ. बलदेव जी से मेरी मुलाक़ात अक्सर शिवकुटीर करमागढ़ में होती थी। जब भी ललित निबंधकार जय प्रकाश 'मानस' जी का रायगढ़ आगमन होता तो, डॉ. बलदेव जी के साथ करमागढ़ अवश्य आते थे। वहीं करमागढ़ के सुरम्यवादी में बने बालकवि 'वसंत' जी का निवास स्थल - शिवकुटीर में, उनसे मुलाक़ात होती थी। 

वे मुझे बाल साहित्य के एक नवागत रचनाकार के रूप में कुशल मागर्दर्शन देते रहते थे। उनका कहना था कि - "बाल कविता यदि सृजन करनी हो तो, सबसे पहले बच्चों के हाव-भाव को समझना सीखो। क्योंकि, उसी से बालकाव्य का प्रथम पुट निकलकर सामने आता है।" 

डॉ. साहब व्याकरण संबंधित जानकारी देते हुये कहते थे - "पति - पत्नी, इन दो छोटे शब्दों का भेद समझ लोगे तो पूरे व्याकरण को समझना तुम्हारे लिए आसान हो जायेगा। वे ऐसी छोटी-छोटी युक्तियों के माध्यम से, बड़ी-बड़ी बातों को समझाने की कोशिश किया करते थे। 

डॉ. बलदेव जी, जब भी करमागढ़ आते उनकी सेवा करने का मुझे सुअवसर मिलता था। वे मुझे नाम से नहीं बल्कि, 'पुष्प' कहकर संबोधित किया करते थे। 

उनके साथ रहते हुए उनकी कुछ बातें देखा करता था। जैसे - उन्मुक्त उड़ते हुए पक्षी, कू-कू करती कोयल का राग, हरियाली, पहाड़ और झरने को वे लंबे समय तक एकटक देखा करते थे। जब मैं उनसे पूछ बैठता कि - "यह आप क्या देख रहे हैं?"

तो वे हँसते हुये कह उठते थे, "ये प्रकृति हमें कुछ कहना चाह रही है। अपनी व्यथा - अपनी ख़ुशी हमसे बाँटना चाह रही है। ये पक्षी जाने क्यों हमें देखकर इस डाल से उस डाल पर नाच रहे हैं। इस कलकल करते झरने के निनाद को सुनो, ये सभी हमसे कुछ माँगना चाह रहे हैं। जाने क्या? हमें नहीं मालूम।"

उस समय मुझे उनकी बातें बड़ी अजीब लगती थीं।

पर वह स्मृतिशेष, महान आत्मा प्रकृति से नाता जोड़कर अमर सृजन कर गया।

 

पहाड़

स्खलित वसना घाटियो 
मत लजाओ 
पास आओ 

मैं हूँ धूपगढ़ का 
धूप का टुकड़ा 
मत जलाओ 
पास आओ 

बजने दो अन्धेरे को 
झिलमिलाती लहरों पर
चढ़ने दो आग की नदी
गिरि शिखरों पर 

उतरने दो
बहने दो 
अपनी गहराइयों में 
अतल गहराइयों में 

 

आत्मदर्शन

हल्दी सी चढ़ रही है धूप मुझमें 
चाँदनी के लिए 
आज तक जी रहे तन्हाइयों में हम
सिर्फ चाँदनी के लिए 

उनकी आँखों में तारे बन के खिले हैं
चाँदनी के लिए
अमावस की रात में जुगनू से -
बुझ बुझ के जले हैं
सिर्फ चाँदनी के लिए 


स्मृतिशेष डॉ. बलदेव जी नवीन रचनाकारों को ख़ूब प्रोत्साहित किया करते थे। उन्हें कई महत्वपूर्ण पुस्तकें उपलब्ध करा कर अधिक से अधिक पढ़ाई करने के लिये कहा करते थे। डॉ. साहब नवागत रचनाकारों को विनय पत्रिका, रामचरित मानस, साहित्य लहरी व सूरसारावली जैसे श्रेष्ठ साहित्य को अध्ययन करने हेतु कहा करते थे। वे, "ज़्यादा पढ़ो और कम लिखो" के ज्ञान को अपने जीवन का केन्द्र बिन्दु बनाने के लिए कहते थे।

जब भी मैं, उनके निवास पर उनसें मिलने के लिए जाता तो उन्हें रामधारी सिंह दिनकर, पंत, निराला व मुंशी प्रेमचन्द्र जी के साहित्य को अध्ययन करते हुए पाता था। वे एक कुशल एकाकी अध्येता व अतुलनीय साहित्यिक मनीषी थे। उनका पारिवारिक जीवन पूरी तरह से साहित्य, संगीत व कला से युक्त था।

उन्हें अध्ययन, लेखन-सृजन के साथ-साथ बागवानी का भी शौक था। वे अक्सर गमलों में तरह-तरह के फूलों के पौधे लगाया करते थे।

मैं जब भी उनसे मिलता मुझे कोई न कोई पुस्तक भेंट स्वरूप देते ही थे। डॉ. साहब मुझे कहा करते थे, "गाँव में जो करमा गीत, ददरिया व पुरानी कहानी जो बड़े-बूढ़ों के द्वारा गायी जाती है या कही जाती है, उन सभी को संगृहीत करना। क्योंकि, विलुप्त हो रही गाँव के संस्कृति को बचाना हमारा प्रथम धर्म है।"

"हमेशा ही साहित्यकार को काव्य सृजन के पूर्व गद्य लेखन सीखना ही चाहिए। क्योंकि गद्य, साहित्य की मूल जड़ है"। इस तरह ना जाने कितनी बातें बताकर वे मेरा मार्ग प्रशस्त किया करते थे।

डॉ. बलदेव जी अपने जीवन के अंतिम चरण तक साहित्य, संस्कृति व कला के लिए पूर्णतः समर्पित रहे। वे एक अच्छे पति - अच्छे पिता व परिवार के कुशल मार्गदर्शक के साथ-साथ नवोदित रचनाकारों के युग पुरुष थे। डॉ. बलदेव जी का स्मृतिशेष हो जाना, साहित्य जगत के लिए एक बहुत बड़ी क्षति है। ऐसा लगता है मानो, पिता का हाथ पुत्र के सिर से हट गया है।

साहित्य व संस्कृति की धनी नगरी ज़िला रायगढ़ के साहित्यिक पुरोधा स्मृतिशेष डॉ. बलदेव जी साहित्य जगत के साथ-साथ हमारे हृदय में भी हमेशा अजर- अमर रहेंगे। उन्हें मेरा शत्-शत् नमन।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अति विनम्रता
|

दशकों पुरानी बात है। उन दिनों हम सरोजिनी…

अनचाही बेटी
|

दो वर्ष पूरा होने में अभी तिरपन दिन अथवा…

अनोखा विवाह
|

नीरजा और महेश चंद्र द्विवेदी की सगाई की…

अनोखे और मज़ेदार संस्मरण
|

यदि हम आँख-कान खोल के रखें, तो पायेंगे कि…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

स्मृति लेख

बाल साहित्य कविता

पुस्तक चर्चा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं