निरन्तर
काव्य साहित्य | कविता डॉ. प्रभा मुजुमदार21 Mar 2009
टूट कर भी
कहाँ टूटते हैं सपने
बस रह जाते हैं
मन के सुदूर कोने में
कुछ वक़्त के लिये
मौन
और मुखरित हो जाते हैं
अवसर पाते ही।
एक सितारे के टूटने से
काश का विस्तार
कम नहीं हो जाता
आँसुओं की कुछ बूँदों से
नहीं बढ़ता है
सागर का तल
बस कुछ हल्का
हो जाता है मन
चिंतन और मंथन की
अप्रिय प्रक्रिया से
गुज़रने के लिये।
तूफ़ानों से
उजड़ने के बाद
भूकंप से ढह जाने के बाद
दंगों, बाढ़, बमों का
तांडव भुगतने के बाद भी
हर बार
उठ खड़ी होती हूँ मैं
संकल्प के साथ
संजीवनी के सहारे
नये सपनों को
सजाये हुए।
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