परदा
काव्य साहित्य | कविता डॉ. महेश आलोक15 Oct 2019
घर में हर दरवाज़े पर परदा टँगा है
जैसे ख़ुद से ही छिपाना चाहता हूँ
कमरे के अन्दर की तमाम चीज़ें
धूल तक छिपाना चाहता हूँ
जिसका अनुपम सौन्दर्य
पृथ्वी के शरीर को बनाता है
ब्रह्माँड की सबसे ख़ूबसूरत स्त्री
कमरे के अन्दर की तमाम चीज़ें
जो इस तरह व्यवस्थित हैं
जैसे मेरा बेटा तमाम वर्षों बाद
अव्यवस्थित करेगा उन्हें
जैसे वे ग़ैरज़रूरी हों
कमरे के इतिहास में बैठे पिता को
परदे से बाहर लाने के लिये
मैं परदा हटाता हूँ
और बिस्तर पर लेटा
मेरा तीन साल का बेटा
खिलखिलाकर हँस पड़ता है
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