इस रास्ते से देश अपने घर लौट रहा है
काव्य साहित्य | कविता डॉ. महेश आलोक15 Jul 2020 (अंक: 160, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
इस रास्ते से पसीने में लिपटा हुआ गुलाब जा रहा है
इस रास्ते से गर्भ में पल रहे बच्चे की ख़ुशियाँ जा रही हैं
इस रास्ते में किसी प्रेमी के भविष्य की माँग का सिन्दूर
किसी दिए सा टिमटिमा रहा है
इस रास्ते में चार दिन पुरानी रोटी की कड़क
भूख में नरम होकर गिर रही है
मिर्ची का स्वाद भी मीठा लग रहा है
इस समय
इस रास्ते पर सपनों का वर्तमान गाँव के प्याज़ से महक रहा है
दिशाओं के घ्राण यन्त्र के ताले की चाभी बनता हुआ
इस रास्ते में सड़क पहली बार अपने योद्धाओं के पैर सहला रही है
कोशिश कर रही है कि तपते हुए कंकड़
फूल की तरह व्यवहार करें तलुओं से
रास्तों की अपनी पहचान अतिथि रास्तों में
तब्दील हो गयी है
पृथ्वी वह सारे जतन कर रही है कि अपने दुख को प्रकट न होने दे
और स्वयँ को बीच से फटने से बचाए रखे
इस रास्ते से घर लौटते
देश की कमर को टूटने से बचाए रखने के लिए
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