पेड़...दो
काव्य साहित्य | कविता संजीव बख्शी23 Dec 2008
वही फिर से दुहराया जा रहा है
सबकी नज़र मेरी ओर टिकी है
मेरे नाम से निकली है जो चिट
बनकर दिखाना है मुझे पेड़
आज और भी कठिन है
कि बन जाया जाय
यानी बन कर दिखाया जाय
पेड़
सामने सबकी उत्सुक आँखें
लगा कि मैं कुछ कर नहीं पा रहा हूँ
एक समय था कि रोनी सूरत पर
लोग समझ लेते ‘पेड़’
अब मेरे चेहरे की रोनी सूरत में
इतना कुछ गडमड हो गया है कि
कोई महँगाई कहता तो कोई अमरीका
पता नहीं सबसे पहले नज़दीकी को
क्यों नहीं याद करते
मैं क्या करूँ कि सब एक साथ कह दें “पेड़”
शरीर इस क़दर सीधा और कड़ा हो गया है कि
पेड़ सा हिलना डुलना संभव नहीं
काफी देर तक टंगिया से पेड़
काटने का एक्शन करता रहा
न जाने क्या क्या तो लोगों ने कह डाला पर
पेड़ किसी ने नहीं कहा
किसी ने नक्सली कहा,
किसी ने गुजरात- तो कोई
सास-बहू कहता रहा
इतना भी भूल जाएँगे पेड़ को
मैं नहीं जानता था
मैं नहीं होता कोई और होता
और मुझे उत्तर देना होता तो
मैं भी कहता होता
महँगाई, अमरीका, गुजरात,
सास-बहू या और कुछ
कोई एक बार पेड़ पर चढ़ा हो
तो पेड़ को याद रखे
कितने तो बच्चे होंगे कि
जो इसके खुरदरे स्पर्श को
नहीं जानते
एक क़ानून ही क्यों नहीं बन जाय कि
दिन में एक बार सबको
कम से कम एक पेड़ को
छूना अनिवार्य हो जाए
गाँव के बहुत से लोगों को इस समय
याद कर रहा था
किसी और समय में कहाँ कोई याद करता है
कोई बीमार एक डाक्टर को याद कर रहा हो
इस तरह
भोला बन रहा चेहरा देखकर
कुछ लोगों ने गाँव कह दिया था
फिर हो गई गाँव की शिकायतें शुरू
रह गया तो बेचारा पेड़
कुछ लोगों को मैं देख रहा था जो
बोनसाई के दिवाने थे
पर भूले हुए थे अभी बोनसाई को
पेडा ही कहलवा लूँ किसी के मुँह से
सोचता हूँ पर
कोई डायबिटीस न कह दे
डरता हूँ
समय निकलते जा रहा था
एक के बाद एक सारे प्रयास निरर्थक हो रहे थे
मन में आया कि मुझे भी क्या हो गया है
किसी के बारे में सोचता हूँ
तो उसकी कमियों को लेकर बैठ जाता हूँ
कष्टों और पीड़ा को चेहरे पर लाने की कोशिश
शिकायतों को हरदम याद रखने की
बन गई आदत ने
हँसना, खिलखिलाना भुला ही दिया है
खिलखिलाकर हँसता हूँ
बैठ जाता हूँ
छोटा सा गढ्ढा खोदने का एक्शन
फिर बीज डालने का और
फिर ज़मीन के ऊपर हथेली को
धीरे धीरे उठाते हुए
खड़ा हो जाता हूँ
आसमान की ओर दोनों हाथों को
लहराता हुआ
खिलखिलाकर हँसता हूँ
सब एकाएक खिलखिलाकर हँसते हैं
एक साथ कोई वृक्षारोपण कह रहा है
कोई वन महोत्सव
एक बच्चा
पेड़, पेड़
पेड़, पेड़ कहते हुए नाच रहा था
मैंने उसे गोद मे उठा लिया
नहीं चढ़ा कभी पेड़ पर
कभी छुआ नहीं तो
क्या हुआ
भूला था कि पेड़ का एहसास तो है
खिलखिलाकर कोई हँसता नहीं
तो क्या
उसका एहसास तो है
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