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फाड़ डाले वे ख़त

आज मैंने बहुत सारी चिट्ठियाँ फाड़ डालीं,
बरसों से फ़ोल्डर में रखी हुई थीं, 
कभी-कभी निकाल कर पढ़ लेती, 
रो लेती हँस लेती।
 
आज फिर पढ़ने लगी, 
माँ की बीमारी, बहन की शादी, 
भाई की पिता जी से बहस, 
पति का प्यार मनुहार, 
बच्चों की ज़िद – सभी कुछ मिला 
उन सहेजे हुये ख़तों में, 
बार-बार पढ़ कर मन में रख लिया सब कुछ!
 
ख़तों का काग़ज़ भी पुराना होकर –
तार-तार सा होने लगा था, 
स्याही हल्की हो गई थी, 
पढ़ पाना भी कठिन हो रहा था।
वैसा ही जैसे जीवन में होता है, 
यादें धुँधली, वे कहानियाँ जो –
उन चिट्ठियों में बुनी गईं थीं. . . बेसहारा सी लगीं, 
जैसे झूल रही हों किसी झंझावात में, 
बिना पतवार के।
 
माता-पिता, भाई-बहन, बच्चों की –
पुरानी बातों ने तो नये आकार ले लिये थे, 
मन में, तस्वीरों में, कविता कहानी के पन्नों में।
अब उनमें दर्द नहीं था, 
सकारात्मकता थी और 
थी एक सुखद सी अनुभूति
उस दर्द, आक्रोश ने, निराशा ने, 
नये से आकार ले लिये थे मन में।
 
आने जाने वाले पलों को क्यों रोकूँ मैं? 
सो जाने दिया, फाड़ डाले वे ख़त!

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