पोइटो
काव्य साहित्य | कविता अविचल त्रिपाठी6 Mar 2016
हरियाली की छाँव में
पथराई सी जान है,
नींद की आग़ोश में,
भूख के आक्रोश में,
चरमराता बदन लेकर,
पोपली मुस्कान है..
उदासियों से तर हमेशा
हैरानियों में सर हमेशा
हड्डियों की गंध में
जिस्म का सामान है..
है परेशां बाग़ में,
नींद में भी ख़्वाब में,
ख़ुशियों के संदूक में,
मौत का अरमान है..
धनुष के नत ढाल सी,
नीम की वो छाल सी,
उस कमरे में है बंद बुढ़िया,
ढूँढना आसान है..
हम ये क्या सब बोल बैठे?
बात कैसी खोल बैठे??
ये तुम्हारी माँ न होकर
"पोइटो" का काम है...!
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