कैंसर
काव्य साहित्य | कविता अविचल त्रिपाठी6 Mar 2016
दिल जलता है मेरा,
सिगरेट की तरह,
तेरे कश हर वक़्त
मेरे होंठों पे होते हैं,
और तेरी यादें,
उड़ती नहीं धुँए की तरह..
सीने में और बैठती जाती है!
गोया तेरे नाम के कैंसर से
बहुत पहले से पीड़ित हूँ मैं,
और लाइलाज है बीमारी, ये
मेरे सारे डॉक्टर/दोस्त कह चुके है..
परहेज़ कई हैं,
कैंसर के साथ भी, लम्बी उम्र के लिए
पर उसके लिए मुझे,
“स्मोकिंग” छोड़ना पहली शर्त है..
हर बार नो स्मोकिंग के ऐड पर,
डर लगता है, कि ये धुआँ,
कही औरो की भी जान न ले ले,
“पैसिव स्मोकिंग” भी
पर्याप्त मात्रा में नुक़सान देय है
पर मेंरे कैंसर पर
बस हक़ है इक मेरा..
वैसे तो ये कैंसर
“जानदेवा” है मेरे ख़ातिर..
बस कभी कभी
खाँसते खाँसते ज़रूर हालत ख़राब हो जाती है..
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