राजनीति (चुम्मन प्रसाद)
काव्य साहित्य | कविता चुम्मन प्रसाद15 Nov 2019
[ 1 ]
सन् 1975
एक गुड़िया
एकाएक जादूगरनी
बन गई थी,
और
अपने काले जादू से
ढक लिया था
पूरे देश को
उस स्याह अँधेरे में
सब कुछ उसके इशारे पर
होता था।
सभी डरे-सहमे
चुपचाप जीवन की गाड़ी
खींचने को थे
मजबूर और विवश।
कि तभी
चाणक्य, चंद्रगुप्त और अशोक की
धरती से
एक बूढ़े ने हुंकार भरी थी
और
उसके पीछे-पीछे
उमड़ पड़ा था जन सैलाब
हाथ में जनशक्ति का मशाल लिए।
जादूगरनी के जादुई तिलिस्म
का क़िला ढह गया था
जनशक्ति के आगे;
और लोकतंत्र की प्रभा
फिर से जगमगाने लगी थी।
[ 2 ]
लेकिन आज परिदृश्य
इस क़दर बदल गया है,
कि,
राजनीति में ही
अपना जीवन होम करने वाले,
वयोवृद्ध आज,
हाशिये पर ढकेल दिए गए हैं।
अपनी कातर निगाहों से
सत्ता सुंदरी को
देखते हैं,
और,
मन मसोस कर
याद करते हैं
अपने स्वर्णिम दिनों को;
लेकिन,
दंतहीन -विषहीन उरग की भाँति
न तनकर खड़े हो सकते हैं
और न,
उठा सकते हैं
प्रतिरोध का स्वर।
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