रेल पटरी पर कान लगाकर सुनो
काव्य साहित्य | कविता डॉ. महेश आलोक15 Nov 2019
रेल पटरी पर कान लगाकर सुनो
उसकी साँसें इतनी तेज़ चल रही हैं कि
जैसे कोई शव पड़ा हो
उसकी बगल में
उससे सौ मीटर की दूरी पर खड़ा पेड़
उस चिड़िया को बचा रहा है
जो ट्रेन की ऊपरी छत पर
बैठकर कर रही थी
यात्रा
कई कई बोलियाँ कई कई भाषाएँ
जो कई कई प्रदेशों को उठाकर
चल रही थीं अपनी आत्मा में
उस लड़की के बगल में
लेटी हैं और चुप हैं
जैसे अपनी पैदाइश के सौ दिन बाद
वह लड़की चुप है
लौटती हुई अपनी आत्मा के
अंधकार में
उनके गले में आवाज़ नहीं है
और वे चीख रहे हैं
उनके पैर नहीं हैं और वे चल रहे हैं
उनके हाथ नहीं हैं
और वे तलाश रहे हैं अपनी ऐनक
रेल पटरी पर कान लगाकर सुनो
एक कुत्ते के रोने की आवाज़
क़तई परेशान नहीं कर रही है
किसी आत्मा को जो संसद के
आख़िरी गुम्बद को
फुटबाल बनाकर खेलने की
कर रहा है तैयारी
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