सहमी नदी
काव्य साहित्य | कविता ज्योत्स्ना 'प्रदीप'15 Dec 2019 (अंक: 146, द्वितीय, 2019 में प्रकाशित)
छंद - हरिगीतिका
(प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ, 16 तथा 12 मात्राओं के बाद यति तथा अन्त में लघु-गुरु वर्ण अवश्य होता है। कहीं-कहीं पदों में यति 14-14मात्राओं पर भी हो सकती है ।)
सहमी नदी यह देख के, हर रोज पादप हैं घटे॥
नग चीख भी सुन लो कभी, पल में हिया उसका फटे॥
दिखता नहीं खग खेत में, सब रेत से सपने झरे॥
अब मोर भी चितचोर ना, दिखते नहीं घन वह भरे॥
खिलते नहीं अब फूल भी, बस शूल ही मन में उगे॥
अब हंस ना बसते नदी, सर, ताल सीपिज ना चुगे॥
कर दो भला फिर से ज़रा, तुम बीज भूतल रोप दो॥
धरती भली कितनी छली, उसको कभी मत कोप दो॥
युग कौनसा अब आ गया, तम छा गया फिर से घना॥
मिटती नहीं अब पीर ये, रघुवीर हे कर दो दया!
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