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तुमको तन-मन सौंपा

(आँसू छन्द)

 

इस छन्द में 14 मात्राओं के चार चरण, द्वितीय और चतुर्थ चरण तुकान्त। चरणान्त में 122/211होना चाहिये, लेकिन आज इसको नहीं माना जाता। जयशंकर प्रसाद नें 'आँसू' काव्य में इसका अपने ढंग से प्रयोग किया। दो लघु का भी प्रयोग किया है -

 

 1
तुमको तन -मन सौंपा था
तब गाती, बलखाती थी।
उर - सागर गहरे पानी
पंकज खूब खिलाती थी।

 

2
छल बनकर तुम ही मेरी
आँखों को छलकाते हो। 
हास छीनकर अधरों का
बस आँसू ढुलकाते हो!

 

3
धरम -करम से उजली थी
अपाला ऋषि कुमारी थी।
देह रोग से त्याग दिया
ये पीड़ा घन भारी थी!


 4
 मन ना काँपा पल तेरा
आँखें तूने ही फेरी।
सघन विपिन में छोड़ दिया
दमयन्ती मैं थी तेरी।


5
इंद्र छले पल में मुझको
तेरा दिल भी ना सीला 
कैसा ऋषि स्वामी मेरा?
युगों करा था पथरीला!!

 

6
मैं भोली तुझे बुलाया
कुंती का कौतूहल था।
सपन बहाया था जल में 
तुझ पर ना कोई हल था?

 

7
आदर्शों की हवि तुम्हारी
सिया -सपने जले सारे।
सागर ने तज दी सीपी
निर्जन में मोती धारे!

 

8
पापी लीन रहा देखो 
मेरे केशों को खींचा!
माँग भरी मेरी जिसनें
सर उसका क्यों था नीचा?


9
हिय झाँका होता मेरा
इक ऋतु ही उसमें रहती।
बुद्ध पार करे भव सागर
यशोधरा नद- सी बहती।


10
ऋषि मुनि राजा रे मन के
धरम -करम तप ध्यान किया।
नारी मन गहरे दुख का 
तूने ना रे मान किया।


11
योग-भोग, जागे-भागे
बनो कभी तो आभारी!
तेरे कुल के अंकुर की
मूल सभी मैंने धारी

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