स्कूल की अंतिम घंटी
काव्य साहित्य | कविता शेष अमित1 Apr 2019
अब नहीं बजती,
यह तब था जब,
प्रार्थना के स्वरों का आरोह,
विस्तार होते अवरोह लेता था,
और सूरज-
कंधे की ऊँचाई से चढ़,
दूसरे कंधे से उतरना चाहता था,
अंतिम घंटी में होती थी एक हलचल-
खड़बड़-खिड़किट्,
बस्ते मे प्रवेश लेना,
कॉपी, किताब और पेंसिल-क़लम का।
और ज्यामिति एक बक्से में बंद हो जाती।
इस अंतिम घंटी में थी गड्डमड्ड की सरलता,
आज़ादी की तरलता में लिपटी,
इतिहास घुटने के बल बच्चे की तरह चलता,
अकबर,बाबर का पिता और,
तुलसीदास की ग़लतियों पर,
कबीरदास को पड़ती डाँट,
सदियों से अक्ष पर झुकी धरती,
सीधी हो जाती,
और गति के नियम तीन से कहीं अधिक होते,
क्यूँकि उस कमरे में थे कई दरवाज़े,
इस अंतिम घंटी में,
कोई ग़लत सही नहीं था और न कोई सही ग़लत-
इसमें लिखी जाती उल्लास,
हर्ष और आनंद की प्रस्तावना,
और मन को तथ्यों का
कूड़ाघर बनने से रोक लिया जाता,
घर लौटने का व्याकरण
सब गलतियाँ देता सुधार,
ठंडे दाल-भात साग की तरावट,
तर देती की-
बुढ़िया कबड्डी, और घोघोरानी वहीं मिलते,
जहाँ पिछले शाम छोड़ा था,
पहली घंटी से बढ़ती घंटियाँ गुरूगंभीर है,
गिने जा सकते हैं इनके क़दम,
तौले जा सकते हैं वज़न,
अंतिम घंटी-
भागते घोड़े की सरपट.पिजड़े का खुला दरवाज़ा,
अराजक होकर भी मुक्ति का एक आश्वासन,
अब नहीं बजती अंतिम घंटी,
मशीन देख सब मशीन उठ जाते हैं,
उदासी और मौन के अपने-अपने बिलों में समा जाते हैं।
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