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शांत रुदन

कौन रो रहा है 
दुखी है कौन यह पूछना 
नासमझी है शायद 
रोते आ रहे हैं हम 
प्राचीन काल से 
और रुलाते आ रहे हैं 
एक दूसरे को 
पर हमें पता नहीं कि
हमीं रोने वाले हैं  और 
रुलाने वाले भी।

 

महाभारत हुआ 
कुछ बचा ही नहीं 
सिवाय रुदन के 
उसमें हमीं रोये थे 
थर्रा गई थी पृथ्वी 
और प्रकृति भी उस समय 
कर्णभेदक चीख से।

 

हर युग से आई 
अवाज़ें रोने की
आज भी आ रही है 
किधर से पता नहीं!
चारों ओर से! हाँ 
चारों ओर से।
रोने की ही आवाज़ तो है 
कौन रो रहा है? 
पता नहीं।
शायद इसलिए पता नहीं कि
गूँज रही है सबके अन्दर 
वह आवाज़ 
और दिखावा करते हैं 
ऊपर से।

 

पहचान में नहीं आती अवाज़ें 
रो रहा है हर कोई पर 
लगे हैं रुलाने में सभी 
एक दूसरे को।

 

कब बंद होगी ये रुलाई 
पर बंद होने क़ी आशा 
नहीं है कोई।
जब नहीं बंद हुई 
रामराज्य में 
और चीखी थी 
कृष्ण काल में 
सुर-असुरों के राज्य में भी 
रही यथावत।

 

पर आज, आज तो 
शुद्ध मानव राज्य है 
और कोई आश्चर्य नहीं कि
बढ़ती जा रही हैं 
रोने की आवाज़ें 
अब चीख में 
बदलती जा रही हैं।

 

अरे यह क्या!
अचानक बंद हो गई 
कहाँ गए सब आँसू आँखों के ?
सूख गए!
आवाज़ें निःशब्द हो गईं 
पर ऐसा हुआ क्यों 
रो तो रहें हैं लोग 
अभी भी पर 
आँसू  नहीं, अवाज़ें नहीं 
शायद नियति बन गई है 
रोना!
रोने की चरमावस्था 
एक हिस्सा बन गया है 
जीवन का 
दैनिक कार्यों और ज़रूरतों जैसे।
समय नहीं है 
आँसू बहाने का 
और न अवाज़ें निकालने का 
रो रहे हैं, काम किए जा रहे हैं 
बस आँसू नहीं है,
अवाज़ें नहीं हैं।
भयानक होता है 
आँसू और 
रोने  की अवाज़ें निकालना  
पर उससे भी भयानक है 
आँसू रहित शांत रुदन!
यह शांत रुदन ............!

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