शब्द गुम होते गए
काव्य साहित्य | कविता विजय प्रताप 'आँसू'5 Feb 2015
शब्द गुम होते गए
भीड़ के विस्तार के संग प्रीत की बढ़ती पिपासा
वर्जनाओं के शहर में बेधती पल पल निराशा
यत्न की मुट्ठी सहेजी रेत तुम होते गये।
शब्द गुम होते गये।
जंगलों के नाम पर कुछ लोग यूकेलिप्टसी
पल रहे कुछ भाव हरियाली लपेटे कैक्टसी
आस मंजूषा में रखे वेद तुम होते गये।
शब्द गुम होते गये।
आइये मिल बैठ कर हम ज़िन्दगी को गुनगुनायें
हाथियों के पाँव से हम चींटियाँ कुछ तो बचायें
आज बेचैनी में कैसे मौन तुम होते गये
शब्द गुम होते गये।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं