सच कहता हूँ
काव्य साहित्य | कविता विजय प्रताप 'आँसू'5 Feb 2015
सच कहता हूँ, पर कहने से डरता भी हूँ।
कुछ दीवारें चुपके–चुपके
अनुमानों से छुपते–छुपते
कानाफूसी खेल न खेलें
हाँ, यह सोच सिहरता भी हूँ।
सच कहता हूँ, पर कहने से डरता भी हूँ।
सत्ता रोज बदलती भाषा
गढ़ती नई–नई परिभाषा
राजनीति के गलियारों में
गिरता और सँभलता भी हूँ।
सच कहता हूँ, पर कहने से डरता भी हूँ।
कुछ मायावी रिश्ते–नाते
मन में आस जगाते जाते
अहसासों के महाभँवर में
फँसता और निकलता भी हूँ।
सच कहता हूँ, पर कहने से डरता भी हूँ।
अरमानों की गहमागहमी
मर्यादाएँ सहमी–सहमी
मध्यस्थों की दोहरी बातें
सुनकर ज़रा ठहरता भी हूँ।
सच कहता हूँ, पर कहने से डरता भी हूँ।
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