शहर में चाँदनी
काव्य साहित्य | कविता सुशील कुमार6 May 2012
भागो कि सब भाग रहे हैं
शहर में
कंकड़ीले जंगलों में
मुँह छिपाने के लिए
चाँद
ईद का हो या
पूर्णिमा का
टी.वी. में निकलता है अब
रात मगर क्या हुआ
मेरी परछाई के साथ
चाँदनी चली आई
कमरे में
सौम्य, शीतल,
उजास से भरी हुई
लगा मेरा कमरा
एक तराजू है
और
मै तौल रहा हूँ
चाँदनी को
एक पलड़े में रख कर
कभी ख़ुद से
कभी अपने तम से
लगा रहा हूँ हिसाब
कितना लुट चुका हूँ
शहर में!
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