सलीब
काव्य साहित्य | कविता सुशील कुमार6 May 2012
दिशाओं के अहंकार को ललकारती भुजाएँ
और
चीखकर बेदर्दी की इन्तहां को चुनौती देतीं
हथेलियों में धँसीं कीलें
एक-एक बूँद टपकता लहू
जो सींचता है उसी ज़मीन पर
लगे फूल के पौधों को
जहाँ सलीब पर खड़ा है सच
जब भी लगता है कि
हार रहा है मेरा सच
सलीब को देखता हूँ
लगता है कोई खड़ा है मेरे लिए
झूठ के ख़िलाफ़
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