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स्वयंवर

टेलीफोन पर बात  ख़त्म करके निर्मल बाबू ने उषा से ग़ुस्से में कहा, "मुंशी जी के घर से भी ना बोल दिया है कविता के लिए, बोले हैं कि लड़की हमारे लड़के से ज़्यादा पढ़ी लिखी है।"

"और पढ़ाओ लड़की को, और अब इसकी अच्छी नौकरी क्या लग गयी है इसके तो पर निकल आये हैं. . ."

"कहाँ से लाऊँ इतना पढ़ा लिखा लड़का.. ? कितनों के सामने जा कर गुहार लगाऊँ।"

फिर कविता पर चिल्लाने लग गए, "क्या मिला तुझे इतना पढ़ के, अच्छे ख़ासे खाते-पीते घर के लडके हाथ से जा रहे हैं। मैं कहे देता हूँ अब जो भी लड़का हाँ बोलेगा, उससे तेरा  ब्याह करवा दूँगा।"

पिछले कई महीनों से घर में यही निराशावादी वातावरण बना हुआ था, सभी इसी बात से परेशान थे कि कविता की शादी तय नहीं हो पा रही है।

रात हुई और उषा अपनी पोती को रामायण में सीता स्वयंवर की कहानी सुनाने लगी, तभी पोती बोली, "दादी ये स्वयंवर क्या होता है?" 

दादी ने कहा, "बिटिया अपने यहाँ पहले लड़कियों को ये अधिकार था कि वो अपने लिए वर माने की दूल्हा चुनें। जो भी लड़के उस लड़की से शादी करना चाहते, वो स्वयंवर के दिन लड़की के घर जाते और लड़की के माता-पिता उनके घर आये हुए सभी लड़कों को कठिन से कठिन चुनौतियाँ देते थे। जो उसे कुशलता पूर्वक पूरा करता था, उसे योग्य वर की क़तार में खड़ा किया जाता था। फिर लड़की उन सभी लड़कों में से एक लड़के को जीवन साथी चुन लेती थी और वो सबको ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार हो जाता...। उस समय सिर्फ़ लड़के की गुणवत्ता की परीक्षा ली जाती थी ना कि उसके घर परिवार की। जैसे सीता जी ने राम जी को, द्रौपदी ने अर्जुन को चुना और जैसे संयोगिता क्या स्वयंवर हुआ था?... तुझे पता है ना कितनी कठिन परीक्षाएँ हुईं थी सभी राजकुमारों की?"

"पोती ख़ुशी से उछल कर बोल पड़ी, "दादी फिर तो कविता बुआ का भी हम स्वयंवर करेंगे और रिश्ते अपने घर बुलवाएँगे, फिर बुआ जिसे भी चुनेगी उनसे शादी करा देंगे, कितना मज़ा आएगा। सभी ख़ुश हो जायेंगे!"

और बस घर में एक शांति सी छा गयी,  किसी के पास जवाब नहीं था कि आज ऐसा क्यों नहीं हो सकता . . .

सभी के मन में ये सवाल गूँजने लगा कि स्वयंवर की उस सुन्दर प्रथा से दूर आज हम कहाँ आ गए हैं!

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