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उन्हें तो मरना ही था

औरंगाबाद में हुए एक ट्रेन हादसे में 16 मज़दूरों की मौत हुई है। इस हृदय विदारक घटना पर -

 

वे सोये थे
निश्चिंत भाव से
रेल की पटरी पर
 
उन्हें पता था कि 
समय के साथ
कुछ चीज़ें 
ठहर गईं हैं
अपनी जगह
 
पटरी भी शांत पड़ी है
ठंडी, शीतल
अंतर्ध्वनि रहित
 
उन्हें पता था
सब स्थिर है, 
अभी
 
चल रहे हैं तो
केवल हम।
 
और वे सो जाते हैं 
ठहराव के साथ
काल के भरोसे
 
अचानक!
 
रेल 
धड़ाधड़ निकल गई 
उनके ऊपर से
 
रेल के पहिये 
कुचलते चले गये,
उनको, 
उनकी पहचान को,
उनके भरोसे और ईमान को
उनके सपने और अरमान को
उनकी मेहनत को, 
घर पहुँचने की छटपटाहट को
कई यादों को
कुछ उम्मीदों को
बहुत सारे जज़्बों
और जिजीविषा को,
खेतों की सौंधी सुगंध
चारों ओर हरीतिमा युक्त
गाँव के एहसास को 
 
पर यह पहली बार हुआ?
 
क्या  पहले कभी कुचले नहीं गये वे
हाँ यह सच है 
कि वे हमेशा से ही कुचले गये।
बस अब
रेल के पहियों ने उन्हें दबा दिया 
 
पर क्या वे कभी दबाए नहीं गये
रेल बड़ी क्रूरता से 
खाल उधेड़ती चली गई उनकी
लेकिन इससे पहले भी तो 
उधेड़ी जाती रही उनकी खाल
 
रेल के पहियों ने उड़ा दिया 
उनके चिथड़ों को इस क़दर
जिस तरह कभी 
साहूकार उड़ा दिया करता था
गाँव में,
जब वे किसान थे
शहर में मज़दूर बनने के ठीक पहले।
 
शहर ने भी कहाँ बख़्शा उन्हें
शहर को इतना कुछ तो दिया उन्होंने
भवन, अट्टालिकाएँ, चौड़ी सड़कें
न जाने क्या कुछ
जिनमें उनके रक्तिम पसीने की बूँदे
समाहित हैं, 
 
पर शहर ने 
क्या दिया उन्हें
वहाँ भी वे कुचल दिये गये 
उसी तरह फुटपाथ पर
कई साहिबज़ादों द्वारा।
 
लगा दिया ग्रहण
उनकी आशाओं की किरणों पर
उन सेठों और मिल मालिकों ने
जिनसे जुड़े थे वे।
 
अब वे उन मज़दूरों को
नहीं पहचानते
जिन्होंने दिन-रात मेहनत
कर अगणित व्यापार बढ़ाया
नक्काशीदार, स्वर्ण जड़ित
महलों को किया था तैयार,
 
पर साहूकारों ने नहीं की चिंता उनकी
अपनी पूँजी का तुच्छ हिस्सा भी
नहीं ख़र्च करना चाहते थे
इस महामारी में भी।
 
यन्त्रणा से ग्रसित
शायद इसलिए
अब वह सो जाना चाहते हैं
चिर निद्रा में
एक लम्बे आग़ोश में,
हमेशा के लिये।
 
सब कुछ लुट जाने
छूट जाने के बाद
अब कोई फ़र्क नहीं पड़ता उन्हें
वे जानते हैं 
मरना ही उनकी
नियति है।
 
शहर हो
मिल हो
चाल हो
फुटपाथ हो 
या
हो रेल की वह पटरी
जिस पर वे सो गये
या
वह गाँव 
जहाँ पहुँचकर
उन्हें मरना ही था
अकाल से
भुखमरी से
अभाव से
घृणा से
हीनता से
या
फिर किसी न किसी के हाथों,
 
या रेल की उसी पटरी पर
जिसे भी 
स्वयं ही बिछाया होगा
कभी न कभी
अपने उन्हीं हाथों से।
 
अब 
रेल पथ पर हैं
तो सिर्फ़
चंद रोटियाँ हैं,
और उनके चिथडे़
वे 
अब
केवल अख़बारों में हैं

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