उसे फिर से बुनना है
काव्य साहित्य | कविता राजू पाण्डेय15 Feb 2020 (अंक: 150, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
दिखती ये अँधेरी सी शाम है
अभी करना बहुत सा काम है
अभी वो कुछ भी कहें, सुनना है
जगह जगह से उधेड़ रखा है
उसे फिर से बुनना है
दूर से जो दिखते रसीले आम हैं
अंदर कुछ में कीड़े तमाम हैं
बस आँखें खोलकर चुनना है
जगह जगह से उधेड़ रखा है
उसे फिर से बुनना है।
सर्वधर्म समभाव वृक्ष प्यारा है
लगाया किसने जड़ पे आरा है
ढूँढ़ना है उसे जो घुनना है
जगह जगह से उधेड़ रखा है
उसे फिर से बुनना है।
रंगहीन पानी हुआ काला है
हवा तो ज़हर का प्याला है
लगायें पेड़, नहीं जंगल धुनना है
जगह जगह से उधेड़ रखा है
उसे फिर से बुनना है।
कुर्सी इंसा की, गधों का बोलबाला है
जिधर दलिया, बदले उधर ही पाला है
अब हमें "राजू" नायक चुनना है
जगह जगह से उधेड़ रखा है
उसे फिर से बुनना है।
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