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विभिन्न भाषाएँ और देवनागरी

(साप्ताहिक हिन्दुस्तान, 05 जुलाई 1964)

जब कभी एक सार्वभौम लिपि की सम्भावना का प्रश्न उठा है, भाषा तथा लिपि विशेषज्ञों का ध्यान बरबस देवनागरी लिपि की ओर आकर्षित हुआ है। यही एक ऐसी लिपि है, जिसे कुछ संशोधन-परिवर्द्धन के साथ संसार-भर की भाषाओं के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है।

वह दिन कभी आएगा भी या नहीं जब सभी भाषाओं की लिपि एक होगी, यह तो अभी कहा नहीं जा सकता पर इतना निर्विवाद है कि उच्चारण के लिखित संकेत के क्षेत्र में विश्व की कोई भी आधुनिक लिपि देवनागरी की बराबरी नहीं कर सकती। ध्वनि के अनुरूप अक्षरों की आकृति यद्यपि एक असम्भव कल्पना-सी प्रतीत होती है, तथापि देवनागरी के कुछ अक्षर इस कसौटी पर भी ख़रे उतरे हैं। कुछ वर्ष पहले एक जर्मन विद्वान ने इस दृष्टि से देवनागरी के अक्षरों की परीक्षा की थी। उन्होंने अक्षरों के मिट्टी के पोले प्रतिरूप तैयार कर उनमें फूँक मारी थी और अ, इ, उ तथा ए – इन चार अक्षरों को उन की ध्वनि के अनुरूप पाया था।

ध्वन्यरूप अक्षराकृति के इस दृष्टान्त को यदि मात्र संयोग मान लें, तो भी कुछ अन्य तथ्य देवनागरी की वैज्ञानिकता का समर्थन करते हैं। इसके प्रत्येक अक्षर या मात्रा का उच्चारण सदा अपरिवर्तित रहता है। देवनागरी में लिखे ’राम’ को सदा ’राम’ ही पढ़ा जाएगा। इस शब्द में प्रयुक्त दोनों अक्षर ’र’ और ’म’ जहाँ कहीं भी इस्तेमाल होंगे, ’र’ और ’म’ की ही ध्वनि देंगे, कोई अन्य नहीं। इसी प्रकार, आकार की मात्रा (।) को भी सर्वत्र ’आ’ ही उच्चारित किया जाएगा। प्रत्येक संकेत-चिह्न द्वारा एक विशिष्ट ध्वनि का निष्पादन ध्वन्यात्मक लिपि की वैज्ञानिकता का सर्वोपरि मापदण्ड है।

देवनागरी अक्षरों का वर्ण-विभाजन भी अत्यन्त वैज्ञानिक है। इसके व्यंजनाक्षरों के पाँच मुख्य वर्ग उच्चारण के स्पर्श-स्थलों के अनुसार निर्धारित हैं। ये स्पर्श-स्थल क्रमशः कंठ, मूर्द्धा, तालू, दन्त, तथा ओष्ठ हैं और इनके सहयोग से उच्चरित होने वाली ध्वनियों के संकेत-चिह्नों को पृथक-पृथक वर्गों में रखा गया है – क-वर्ग, च-वर्ग, ट-वर्ग, त-वर्ग और प-वर्ग। वर्णमाला में इन वर्णों का स्थान भी शरीर में उनकी अवस्थिति के अनुसार ही निश्चित किया गया है – क-वर्ग (कंठ्य) को पहले स्थान मिला है और प-वर्ग (ओष्ठ्य) को बाद में। अन्त में अन्तस्थ और ऊष्म ध्वनियाँ रखी गई हैं। पर वर्गों के इस क्रम-निर्धारण में न जाने कैसे एक त्रुटि रह गई है जिसकी ओर विद्वानों का ध्यान इधर आकर्षित हुआ है और जिसे बिना किसी विशेष कठिनाई के सुधारा भी जा सकता है। यह त्रुटि च-वर्ग तथा ट-वर्ग के सम्बन्ध में है। च-वर्ग की ध्वनियाँ तालू से सम्बन्धित हैं और ट-वर्ग की मूर्द्धा से। हमारे शरीर में कंठ के बाद मूर्द्धा का स्थान है और तब तालू का। इसलिए क-वर्ग के बाद ट-वर्ग को स्थान मिलना चाहिए और तब च-वर्ग को। डॉक्टर धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार – "पाणिनी के समय इन वर्गों के वर्णों का उच्चारण सम्भवतः कुछ भिन्न रहा होगा पर अब वर्तमान उच्चारणरूप के अनुसार इन वर्गों का स्थान-परिवर्तन वांछनीय है।"

 

ऐतिहासिक प्रमाण

देवनागरी लिपि की तीसरी वैज्ञानिक विशेषता उसकी शिरोरेखा है जिसका जन्म चौथी शताब्दी में हुआ और जो सातवीं शताब्दी तक बड़े पैमाने में विकसित हो गई। मेवाड़ के गृहिलवंशी राजा अपराजित (661 ईसवी) के लेख में अक्षरों पर शिरोरेखा स्पष्टतः अंकित है। पर उस समय देवनागरी का नहीं, कुटिल लिपि का प्रचलन था जिसका विकसित रूप वर्तमान देवनागरी है। जो भी हो, शिरोरेखा आरम्भ से ही देवनागरी के साथ रही है और इसकी अपनी विशिष्टता है। शिरोरेखा दृष्टि-गति के सहज संचरण के लिए पथ का निर्माण करती है, जिसके कारण दृष्टि सम्पूर्ण शब्द को एकसाथ ग्रहण करती है।

इस प्रकार, देवनागरी लिपि में लगभग वे सब वैज्ञानिक तत्व हैं जिनकी एक समृद्व लिपि में आशा की जाती है। इसकी वैज्ञानिकता इसे संसार-भर की लिपियों में सर्वोच्च स्थान दिलाती है। फिर भी, आज जब समस्त भारतीय भाषाओं के लिए एक लिपि का प्रश्न उठता है, तब अनेक लोगों को देवनागरी के बजाय रोमन लिपि का पक्ष लेते देख कर आश्चर्य होता है। वस्तुतः भारतीय भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि की उपयुक्तता न केवल उसकी वैज्ञानिकता के कारण है, बल्कि उन भाषाओं की लिपियों के साथ उसके अत्यन्त निकट सम्बन्धों के भी कारण है।

भारत की प्राचीनतम उपलब्ध लिपियाँ ब्राह्मी और खरोष्ठी हैं। मोहनजोदड़ो के अवशेषों से भी एक लिपि प्रकाश में आई है, पर अब तक उसे पढ़ पाना सम्भव नहीं हुआ है अतः उसकी गणना यहाँ नहीं की जा सकती। इनमें से भी खरोष्ठी, जो अरबी-फ़ारसी की भाँति दाईं से बाईं ओर लिखी जाती थी, का प्रचलन देश के केवल पश्चिमोत्तर प्रदेश में ईसा की चौथी शताब्दी तक रहा। उसके बाद वह लुप्त हो गई। फलतः ब्राह्मी को ही इस देश की प्राचीनतम राष्ट्रीय लिपि कहा जा सकता है। इस लिपि में लिखे गए लेख ईसा-पूर्व पाँचवी शताब्दी तक के मिले हैं। इसके बाद ब्राह्मी के उत्तरी तथा दक्षिणी, ये दो रूप हो गए और इन की भौगोलिक विभाजन रेखा बनी विन्ध्याचल की पर्वत श्रेणी। विन्ध्याचल के उत्तर में उत्तरी ब्राह्मी का प्रयोग होने लगा और उसके दक्षिण में दक्षिण ब्राह्मी का।

उत्तरी ब्राह्मी का अगला रूप गुप्त लिपि हुआ, जो गुप्त काल में प्रचलित थी। फिर, गुप्त लिपि विकसित होकर कुटिल लिपि बनी, जिससे नौंवी शताब्दी के आसपास नागरी और शारदा लिपि का जन्म हुआ। यह शारदा लिपि ही टांगड़ी (कश्मीरी) तथा गुरुमुखी लिपियों की जननी है। दूसरी ओर, प्राचीन नागरी से राजस्थानी, गुजराती, महाजनी तथा कैथी लिपियों और उनकी पूर्वी शाखा से प्राचीन बंगला लिपि का जन्म हुआ। आगे चल कर प्राचीन बंगला से उड़िया और असमिया लिपियाँ निकलीं। प्राचीन नागरी ही 12वीं शताब्दी तक पहुँचते-पहुँचते विकसित होकर वर्तमान देवनागरी बन गई। इस प्रकार उत्तर भारत की लगभग सभी आधुनिक लिपियाँ उत्तरी ब्राह्मी की ही पुत्रियाँ हैं।

दक्षिणी ब्राह्मी से तेळुगु, कन्नड़, मळयालम, तमिळ एवं कलिंग लिपियों का जन्म हुआ। इन लिपियों के वर्णों की आकृतियाँ तो देवनागरी अथवा अन्य उत्तर भारतीय लिपियों की वर्णाकृतियों से पूर्णतः भिन्न है, पर वर्णमाला के स्वर और व्यंजन लगभग समान हैं। स्वर वर्ण अ, आ, इ, ई आदि हैं और व्यंजन वर्ण क, ख, ग, घ, आदि। हाँ, इनमें स्वरों और व्यंजनों की संख्या देवनागरी से कुछ अधिक अवश्य है। पर तमिळ की स्थिति तो इन दक्षिणी लिपियों में भी विचित्र-सी है। सम्भवतः समस्त भारतीय लिपियों में उसकी वर्णमाला सबसे संक्षिप्त है। दक्षिण भारत में वहाँ की प्रमुख भाषाओं की अपनी-अपनी लिपियाँ तो प्रचलित हैं ही, नागरी लिपि भी ’नन्दिनागरी’ अथवा ’ग्रंथम’ लिपि के नाम से चल रही है, जिसमें संस्कृत के ग्रन्थों को लिपिबद्व किया जाता है। इस तरह, आधुनिक दक्षिण लिपियाँ भी यदि संसार की किसी लिपि से निकटतम सम्पर्क रखती हैं, तो मात्र देवनागरी से।

 

विभिन्न लिपियाँ

राष्ट्रीय आन्दोलन काल में लगभग सम्पूर्ण देश देवनागरी के राष्ट्रीय रूप में ग्रहण किए जाने के पक्ष में था। देवनागरी का सबसे अधिक समर्थन अहिन्दीभाषी लोग ही कर रहे थे। पर स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद संविधान-सभा द्वारा देवनागरी में लिखित हिन्दी के राष्ट्रभाषा स्वीकृत किए जाने के उपरान्त हिन्दी के साथ-साथ देवनागरी के विरोध की भी एक आँधी-सी उठ खड़ी हुई। समस्त भारतीय भाषाओं को रोमन लिपि में लिखने पर बल दिया जाने लगा।

प्रश्न उठता है कि देवनागरी के समान वैज्ञानिक न होते हुए भी क्या रोमन लिपि में ऐसी कुछ ख़ूबियाँ हैं जिनके कारण हमारे अहिन्दीभाषी बन्धु उस ओर आकर्षित हैं? सर्वविदित है कि आधुनिक जगत् की सर्वाधिक प्रचलित चार लिपियाँ रोमन, अरबी, चीनी और देवनागरी हैं। चीनी वर्णमाला में चित्राक्षरों की अधिकता के कारण स्वयं चीनी भी उसे अपूर्ण, अविकसित और कठिन मानते हैं। अरबी में स्वराक्षरों का घोर अभाव है जिसके कारण उसमें उच्चारण के अनुसार शब्द नहीं लिखे जा सकते, ’चन्द्र’ ’चन्दर’ बन जाता है, ’कृष्ण’ ’करसन’, और ’मन्दिर’ ’मन्दर’। उसके अक्षरों का उच्चारण उनमें निहित ध्वनि के अनुरूप नहीं है। अरबी के प्रथम अक्षर का उच्चारण है ’अलिफ़’, पर शब्द-रूप में अलिफ़ लिखना पड़े तो तीन अक्षरों – अलिफ़, लाम, और फ़ को जोड़ना पड़ता है। अलिफ़ अ के अतिरिक्त पद की सहायता से ’आ’ की ध्वनि भी देता है। एक ही वर्ण इये का प्रयोग य, इ, ई, ए, ऐ ध्वनि के लिए तथा वाओ का प्रयोग व, उ, ऊ, ओ और औ ध्वनियों के लिए होता है। ऐसी अवस्था में शब्द उच्चारण के अनुसार शुद्ध रूप में नहीं लिखे जा सकते।

रोमन लिपि में स्वर वर्णों के साथ-साथ व्यंजन वर्णों का भी अभाव है। इसके पाँच स्वर वर्ण हैं –

ए, ई, आइ, ओ, और यू। ए से अ, ओ, आ, ए और ऐ ध्वनियाँ निकाली जाती हैं जिसके फलस्वरूप ’राम’ शब्द ’रैम’ भी पढ़ा जा सकता है। ई से अ, इ और ए, तीनों ध्वनियों का प्रकाशन किया जाता है, जैसे ’हर’, ’बी’, और ’एन्ड’। इसी तरह आइ का प्रयोग इ, ई तथा आइ, इन तीन ध्वनियों के लिए, ओ का अ (कम), औ (औन) तथा ओ (गो) के लिए, और यू का प्रयोग अ (बट), उ (पुट) तथा यू (ड्यूटी) के लिए होता है। उधर व्यंजनों का यह हाल है कि सी वर्ण स की ध्वनि के लिए भी प्रयुक्त होता है और क के लिए भी, जी वर्ण ग की ध्वनि भी देता है और ज की भी, और बेचारे एच का प्रयोग तो अपने उच्चारण की किसी भी ध्वनि के लिए नहीं होता – वह एक अन्य ध्वनि, ह के लिए प्रयुक्त होता है। यही हाल डबल्यू और वाई का है। ये दोनों वर्ण क्रमशः व और य ध्वनियों के लिए व्यवहृत होते हैं, जिनके लिए इनके उच्चारण में कहीं कोई स्थान नहीं है। महाप्राण ध्वनियाँ निकालने के लिए दो वर्णों का प्रयोग करना पड़ता है - जैसे ख, घ, छ, फ, आदि। इसके अतिरिक्त रोमन में ट वर्ग के ण और त वर्ग के न को छोड़ कर शेष ध्वनियों के प्रकाशन की कोई व्यवस्था नहीं है। इस तरह, लिपि के रूप में रोमन की कोई विशेषता नहीं है। यदि कोई विशेषता है तो मात्र यह कि उसमें वह बहुमूल्य साहित्य भरा पड़ा है जिसके बिना आधुनिक मानव प्रगति नहीं कर सकता। पर क्या यह कारण एक अत्यन्त विज्ञान-सम्मत लिपि को तजने के लिए पर्याप्त है? क्या पाश्चात्य साहित्य के लोभ में पड़ कर और आलस्य के कारण हमें अपने ’राम’ को ’रामा’ और ’रमा’ तथा ’बुद्व’ को ’बुड्ढा’ बनवा देना चाहिए? रोमन लिपि अपनाने से क्या हमारे अपने शब्दों के उच्चारण विकृत रूप नहीं धारण कर लेंगे? क्या यह उचित नहीं होगा कि हम अपनी लिपि को सुरक्षित रखते हुए आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से परिचित होने के लिए रोमन लिपि सीखने का भी कष्ट उठाएँ?

 

राजनीतिक चाल

रोमन लिपि को अपनाने का प्रश्न लिपि और साहित्य की दृष्टि से उठाया ही नहीं गया। यह कुछ मुट्ठी-भर लोगों का दाँव-पेंच था, जिसके लिए विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच परस्पर ईर्ष्या तथा कटुता पैदा की गई जो हमारे राष्ट्र के लिए घातक है। यह नहीं माना जा सकता कि महात्मा गाँधी, लोकमान्य तिळक, स्वामी दयानन्द, बी. जी. खेर, डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, विनोबा भावे, काका कालेलकर आदि में चिन्ता-शक्ति का अभाव था अथवा है।

इसका यह अर्थ भी नहीं कि देवनागरी अपने-आप में पूर्ण है और उसमें किसी तरह का सुधार किए जाने की आवश्यकता नहीं है। वस्तुतः समस्त भारतीय भाषाओं की सभी ध्वनियों के लिए देवनागरी में संकेत-चिह्न नहीं हैं और उनकी व्यवस्था किए बिना दक्षिणी भाषाएँ इस लिपि में शुद्ध रूप से नहीं लिखी जा सकतीं। निस्सन्देह ये ध्वनियाँ बहुत थोड़ी हैं – दस से भी कम, और इनके लिए नए संकेत-चिह्न थोड़े समय में ही बिना किसी कठिनाई के बनाए जा सकते हैं। पर दुर्भाग्यवश स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद देवनागरी में सुधार के प्रयत्न उसे भारतीय भाषाओं के अनुकूल बनाने की दृष्टि से नहीं, टाइपराइटर के अनुकूल बनाने की दृष्टि से हुए। परिणमतः वह टाइपराइटर के अनुकूल तो बनती गई, पर भारतीय भाषाओं से दूर होती गई। जिस प्रकार हिन्दी को एक क्षेत्र-विशेष की भाषा बनाने के प्रयत्न में अन्य भारतीय भाषाओं से दूर किया गया, उसी प्रकार देवनागरी को भी राष्ट्र-पट से हटा कर टाइपराइटर की कुंजियों में बन्द करने का भरसक प्रयत्न हुआ। भारत पर अंग्रेज़ी भाषा और रोमन लिपि का प्रभुत्व बनाए रखने के लिए इससे अधिक उपयोगी काम और कुछ नहीं हो सकता था।

देवनागरी लिपि का अगस्त 1959 में भारत सरकार द्वारा स्वीकृत स्वरूप टाइपराइटर के साथ-साथ भारतीय भाषाओं के भी अनुरूप है और लिपि की वैज्ञानिकता तथा सरलता की रक्षा करता है। संयुक्ताक्षरों के सम्बन्ध में यह निश्चय किया गया है कि अक्षरों को ऊपर-नीचे बैठाने की कोई आवश्यकता नहीं। खड़ी पाई वाले व्यंजनों का संयुक्त रूप खड़ी पाई को हटा कर बनाया जाएगा। क और फ के संयुक्ताक्षर बनाने का वर्तमान ढंग ही क़ायम रहेगा – जैसे पक्का, दफ़्तर; ङ, छ, ट, ठ, ड, ढ, द तथा ह के संयुक्ताक्षर हलन्त लगाकर बनाए जाएँगे; संयुक्त र के तीनों पुराने रूप बने रहेंगे; श्र पूर्ववत् ’श्र’ के ही रूप में रहेगा; और त्+र के स्थान पर त्र लिखा जाएगा। इसके अतिरिक्त शिरोरेखा को पूर्ववत् बना रहने दिया गया है और पूर्णविराम के अतिरिक्त अन्य विराम आदि चिह्न रोमन लिपि से ग्रहण कर लिए गए हैं। अनुनासिक और अनुस्वार को भी प्रचलन में रखा गया है तथा अर्द्धचन्द्र को स्वीकृति दी गई है। कुछ अक्षरों के रूप स्थिर किए गए हैं तथा कुछ में संशोधन किया गया है।

देवनागरी वर्णमाला में एक नया वर्ण ळ भी, जिसकी ध्वनि ल और ड़ के बीच की है, तथा जो मराठी और दक्षिणी लिपियों में प्रयुक्त होता है, सम्मिलित किया गया है। इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ को भी स्थिर रहने दिया गया है – अ में मात्रा लगाने की बात स्वीकार नहीं की गई है। इ की मात्रा के सम्बन्ध में 1953 में लखनऊ में हुए लिपि-सुधार सम्मेलन के सुझाव को स्वीकार नहीं किया गया और उसे पूर्ववत् सम्बद्व अक्षर से पहले लगाने की बात मानी गई है। विवादास्पद दो अंकों 8 और 9 के भी स्थिर स्वरूप (८ और ९) स्वीकार कर लिए गए हैं। इस प्रकार, अपने संशोधित रूप में देवनागरी का हित ही हुआ है, क्योंकि अपनी ध्वनि-व्यंजना को ठीक रखते हुए वह टाइपराइटर, लाइनो मशीन, मोनो मशीन आदि के लिए अधिक सुविधाजनक बन गई है।

 

अब भी पूर्ण नहीं

अब भी देवनागरी में कुछ ध्वनियों के लिए संकेत-चिह्न गढ़े जाने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, अंग्रेज़ी के शब्दों Red और Raid को अभी देवनागरी में एक ही प्रकार से ’रेड’ लिखा जाएगा। पर यह ठीक नहीं है – Red के लिए हृस्व ए की मात्रा बननी चाहिए। इसी प्रकार हृस्व ऐ, हृस्व ओ और हृस्व औ की मात्राएँ भी आवश्यक हैं। इस सम्बन्ध में यह सुझाव विचारणीय है कि जहाँ हृस्व ध्वनि का प्रयोजन हो, वहाँ सम्बद्व मात्रा के साथ अर्द्वचन्द्र का प्रयोग किया जाए, जैसे रे+ॅ+ड Red और रेड Raid। इससे किसी अतिरिक्त चिह्न को जन्म दिए बिना ही हम एक बड़े अभाव की पूर्ति कर लेंगे। इसी प्रकार मळयाळम, तमिळ, कन्नड़ और तेळुगु में कुछ ऐसे व्यंजनाक्षर भी हैं जिनके लिए नए संकेत-चिह्न बनाने की आवश्यकता है। अच्छा हो यदि भारतीय भाषाओं के विद्वानों का एक आयोग नियुक्त किया जाए, जो शेष भारतीय भाषाओं की लिपियों के उन वर्णों के लिए, जिन्हें देवनागरी में स्थान नहीं मिला है, उपयुक्त संकेत-चिह्नों का निश्चय करे और इस प्रकार देवनागरी को केवल हिन्दी अथवा मराठी की नहीं, बल्कि समग्र भारत की लिपि बनने योग्य स्वरूप प्रदान करे।

हिन्दी के लेखकों का भी यह कर्तव्य है कि वे हिन्दी लेखन में सरलता के नाम पर उच्छृंखलता को प्रश्रय न दें और देवनागरी के अत्यंत सरल एवं वैज्ञानिक स्वरूप को नष्ट न करें। हिन्दी लेखन में उन्हें सावधानीपूर्वक चन्द्रबिन्दु, अर्द्धचन्द्र, अनुस्वार, ट-वर्ग, त-वर्ग, तथा प-वर्ग के अनुनासिकों के अर्द्धरूप, अल्पविराम, हलन्त, नुक़्ता आदि का प्रयोग करना चाहिए। विभक्तियों, आदरसूचक सर्वनामों, क्रियाओं के बहुवचन रूप (गया, गये, गयी, हुआ, हुए, हुई) आदि के सम्बन्ध में भी उन्हें आवश्यक नियम बना लेने चाहिए और उनका पूर्णतः पालन करना चाहिए। अनियमितता सरलता नहीं है, यह बात हमें भली-भाँति समझ लेनी चाहिए, अन्यथा अनजाने में ही हम सब ऐसी भूल कर बैठेंगे जिसका कालान्तर में कोई परिमार्जन सम्भव नहीं होगा।

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