विदेश में होली
काव्य साहित्य | कविता उमेश ताम्बी7 Nov 2007
खरबूजा काट मृदंग
बनाया नींबू काट मंजीरा
मत्तीरा काट रंग बनाया
जैसे ऊँट के मुँह जीरा
ना गुजिया है, ना कचोरी, ना
मठरी, ना खट्ठी-मिट्ठी गोली है
डोनट-केक, रिवोली
बनते व्यंजन हुए पहेली हैं
वृन्दावन की कुञ्ज गली
में धुलेंडी और होली है
सात समंदर पार न
गोपी और न कोई सहेली है
ना रंग, नहीं है रोली,
ना मस्तानों की टोली है
ना ठंडाई मिले और न
हरे रंग की गोली है
वैलेंटाइन हेलोवीन ही
यहाँ बने हमजोली है
फागुन के आते आते
आपने हमारी आँखे खोली है
दे दिया दिलासा दिल को...
कि आज यहाँ होली है..
बुरा ना मानो होली है!!
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