यात्रा
काव्य साहित्य | कविता डॉ. प्रभा मुजुमदार24 Jun 2008
मुझे आकाश चाहिये
सपनों की अनवरत उड़ान के लिये
मुझे ज़मीन भी चाहिये
पलभर थमकर
अपने लहुलहान पंजों को
सहलाने के लिये।
धधकते प्रश्नों से
क्षण भर के लिये निर्वासन चाहिये
ज़िंदगी की रेलमपेल में अचानक
विराम का एक पल चाहिये
छू सकूँ आकाश को भी
और पैरों से धरती पर
पंख लगा दे हवा मुझे
और तपिश सूरज की हो तो
सर्द वीरानी की दुनिया
चाँदनी सी जगमग जाये.
सरिता का प्रवाह चाहिये
मरूभूमी के बीच
और बरगद की छाया
झुलसाती काली सड़कों पर।
मुझे इन्द्रधनुष चाहिये
ज़िंदगी के हर रंग की
पहचान के लिये
मुझे संकल्प चाहिये
अनजान पड़ावों के लिये
अपरिचित यात्रा के लिये।
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