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आज के प्रश्न और साहित्य 

समय के साथ मनुष्य ने जितना भौतिक विकास किया अपने जीवन जीने के विकल्पों को जितना अधिक समृद्ध किया, विकास की नई-नई परिभाषाएँ गढ़ीं, सफलता के नए पैमाने विकसित किए उतना ही मनुष्य मानव होने की श्रेणी से धीरे-धीरे च्युत होता गया, उसके भीतर मानवीय तत्व का विघटन होता गया। विज्ञान ने समस्त विश्व के विस्तार को कम किया तो साथ ही एक क्षेत्र का संकट दूसरे क्षेत्र के संकट को भी प्रभावित करने लगा। संघर्ष, पीड़ा और परिणाम समान रूप से मानव के हिस्से आए। होना यह चाहिए था कि एक सहज मानवीय धरातल पर अपने सम्बन्धों को पहचान कर नियति में सहभागी होकर मानवीय गौरव की प्रतिष्ठा होती पर हुआ उसके विपरीत ही। मनुष्य अपने-अपने सुविधाजीवी खोल के अंदर सिमटता चला गया। उसके भीतर स्वार्थ केन्द्रित व्यक्तिवाद पनप रहा है, समाजिकता का लोप हो रहा है। आज के संकट केवल आर्थिक, राजनीतिक या सामाजिक संकट नहीं बल्कि मानव जीवन के मौलिक प्रतिमानों के संकट हैं।

साहित्य को किसी भी समाज की सर्जनात्मक चेतना की अभिव्यंजना माना जाता है। साहित्य में जो भाव विद्यमान है वह है संवेदना और सहित की भावना जिसका इस यांत्रिक विकास से बहुत गहरा सरोकार है परन्तु कतिपय विद्वान आज के संदर्भ में इसे अनुपस्थित पाते हैं। प्रभाकर क्षोत्रिय इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं, “वर्तमान समय को यदि हम एक शब्द से प्रतीकीकृत करना चाहें तो वह है–‘गति’ क्योंकि हमारा समय तीव्र संक्रमण का काल है। आमतौर पर जहाँ तेज़ संक्रमण होता है, वहाँ दिशाबोध लुप्त या धूमिल हो जाता है। हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौती गतिशील समय में दिशाबोध पाने की है। वरना हम भागे चले जाएँगे, हमें पता ही नहीं चलेगा कि हम कहाँ जा रहे हैं, हमें कहाँ जाना है, हमारा लक्ष्य क्या है? सब कुछ हड़बड़ी में बनता-बिगड़ता चला जाएगा।” (साहित्य के नए प्रश्न, प्रभाकर क्षोत्रिय, पृ. 21) समय के इस तेज़ गति को पकड़ने के लिए साहित्य को अपने चरित्र के अनुसार आगे चलना होगा। समय की नब्ज़ पर उँगली रखकर वास्तविकता तक पहुँचना होगा। साहित्य के लिए बड़ी चुनौतियाँ हैं। जब से साहित्य लिखा जा रहा है तभी से उसने अपने दायित्व के गुरु भार का वहन बड़ी ही गंभीरता के साथ किया है। समय के प्रवाह में समसामयिक संदर्भों में साहित्य एक ढाल की तरह मानवीय भावनाओं को बल प्रदान करता रहा। उदाहरण हमारे सामने हैं—आधुनिक काल से पूर्व का साहित्य न केवल तत्कालीन समाज, साहित्य, राजनीति आदि का लेखा-जोखा है अपितु उसमें वह चेतना विद्यमान है जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है। 

आज के समय की चुनौतियाँ दूसरी हैं। रचनाकार के सामने अभिव्यक्ति के संकट के साथ-साथ आज के समय–समाज को उसके सापेक्ष संदर्भों में रूपायित करने का गंभीर दायित्व है। रचनाकर की लेखनी हमेशा से ही प्रश्नों के घेरे में रही है। इस संदर्भ में नंदकिशोर आचार्य का कथन है—“कुछ लोग हैं जो इस का दायित्व आज के रचनाकारों पर ही डालते हैं: एक वह हैं जो मानते हैं कि आज लिखे जा रहे साहित्य में साहित्य जैसा कुछ नहीं है, उसमें न कोई कहानी है, न कोई छन्द है और कुछ इस तरह लपेटी हुई अभिव्यक्ति होती है कि पाठक को कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता और इसीलिए साहित्य के प्रति उसकी रुचि का विकास नहीं होता।” (रचना का सच, नंदकिशोर आचार्य, पृ. 90) साहित्य के प्रति इस तरह का एकांगी दृष्टिकोण रखने वाले और भी आगे बढ़कर कहते हैं कि आज का साहित्य समाज से जुड़ा हुआ नहीं है उसमें निराशा और कुंठा का भाव अधिक है वह आम आदमी के संघर्ष से जुड़ा हुआ नहीं है इसीलिए उसमें आम पाठकों की रुचि नहीं होती। यह एक ज़िम्मेदारीपूर्ण दिया हुआ बयान नहीं है। प्रत्येक साहित्य और साहित्यकार की रचना के पहलुओं की गंभीर पड़ताल होनी चाहिए उसके बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए। जयशंकर प्रसाद ने अपने नाटकों में अतीत का गुणगान किया। उन्होंने इतिहास पुरुषों को अपने नायक के रूप में चित्रित किया। तत्कालीन समय की ग़ुलाम जाति में आत्म सम्मान जगाने के लिए वे इतिहास के महान नायकों को लेकर आए। गौतम बुद्ध, स्कंदगुप्त, चन्द्रगुप्त, चाणक्य जैसे पात्रों के असाधारण गुणों की अनिवार्यता पाठक ने महसूस की। यही नहीं उनके साहित्य में बिखरे छोटे-छोटे सूत्र आज के समय में भी मनुष्य का बहुत बड़ा संबल हैं। बस आवश्यकता है तो उन सूत्रों पर एक गहन दृष्टिपात की, उन्हें आत्मसात करने की। उनकी रचना से एक उदाहरण दृष्टव्य है—“अतीत सुखों के लिए सोच क्यों, अनागत भविष्य के लिए भय क्यों और वर्तमान को मैं अपने अनुकूल बना ही लूँगा; फिर चिंता किस बात?” (सिंहरण का कथन, चन्द्रगुप्त, नाटक, जयशंकर प्रसाद, पृ. 50) 

परिमाण की दृष्टि से आज साहित्य लेखन बहुत तेज़ी से हो रहा है। इस लेखन में उत्साह बहुत अधिक है लेकिन उस मात्रा में गहनता कितनी अधिक है यह विचारणीय है। जिस तेज़ी से साहित्य लिखा जा रहा है उतनी ही तेज़ी से समाज के सांस्कृतिक मूल्यों में भी परिवर्तन हो रहा है। नवीनतम चेतनाओं को ग्रहण करने की आतुरता प्रशंसनीय है साथ ही भाषा के स्तर पर भी नित नए प्रयोग हो रहे हैं जो बदलती भाषिक संरचना में कुछ हद तक अनिवार्य भी हैं। साहित्यकार अपने रचना कर्म के दौरान किस तरह के सामाजिक दबावों से होकर गुज़रा है, वह किन मानसिक प्रक्रियाओं से होकर गुज़रा है, एक साहित्यकार के रूप में उसके लेखन की क्या विशिष्टता रही है और समसामयिक समस्याओं के समाधान के लिए उसकी रचना ने क्या समाधान प्रस्तुत किए हैं इस सब बातों का भी मूल्यांकन अपेक्षित है। 

कोई भी रचना अपने समय से अलग नहीं होती उसके पीछे एक लंबी परंपरा होती है। वह रचना पीछे के इतिहासों की एक संबद्ध कड़ी होती है। रचनाकार अपनी उस रचना के माध्यम से अपने समय का प्रतिनिधित्व करता है। उसकी रचना के मर्मस्पर्शी स्थल अपने समय को शब्दों में बाँधकर हमेशा के लिए स्थायी बना देते हैं:

तितली को देखो! 
तितली तितली है
मछ्ली मछ्ली है
चिड़िया चिड़िया है
मोर मोर
यहाँ तक कि
जो बंदर रह गया
बंदर ही है
मगर आदमी
क्यों अब तक
आदमी नहीं है? (एक सवाल, राम तैलंग) 

आज के रचनाकर की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है—जीवन को समग्रता में अंकित करना। उद्दात मूल्यों की उपादेयता को परम ध्येय मानकर उसे रचना कर्म में प्रवृत होना चाहिए। विश्व ग्राम की संस्कृति ने बहुत कुछ दिया पर हमने खोया भी बहुत कुछ है। वास्तव में यह संकल्पना एक मायाजाल की तरह है जिसमें हम अपने को ही छल रहे हैं। इस मायाजाल की चकाचौंध से बचते हुए मानवता के हित में निरंतर प्रयास ही आज के साहित्य कर्म की चुनौती है।

डॉ. सारिका कालरा
एसोसिएट प्रोफ़ेसर (हिन्दी) 
लेडी श्रीराम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय 
ई-मेल sarikaka।ra9@gmail.com

संदर्भ:

  1. रचना का सच, नन्दकिशोर आचार्य, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, सं. 1986

  2. मानव मूल्य और साहित्य, डॉ. धर्मवीर भारती, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 1999

  3. साहित्य के नए प्रश्न, प्रभाकर क्षोत्रिय, सामयिक बुक्स, दिल्ली, सं. 2014

  4. 21 वीं सदी की समस्याएँ और साहित्य, सं कृष्ण कुमार भट्ट ‘पथिक’, डॉ. चंद्रशेखर सिंह, अक्षय प्रकाशन, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, 2019

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