घर (डॉ. सारिका कालरा)
काव्य साहित्य | कविता डॉ. सारिका कालरा2 Apr 2015
चलो लौट चलें घर अपने
यहाँ लूटमार मची है
पद, मैत्री, अपनापन
ऊँचे दामों पर खरीदे जा रहे हैं।
चलो लौट चलें घर अपने
दीवारें बुलाती हैं।
वे दीवारें साक्षी हैं
तुम्हारी तपन
तुम्हारे पसीने की।
तुम्हारा सुर्ख चेहरा
उन दीवारों ने जज़्ब कर लिया है।
उन्हीं दीवारों के दरमियां
तुम्हारी सिसकियाँ दबी हैं।
तुम्हारा उल्लास भी
उन्हीं दीवारों ने सँभाल कर रखा है।
चलो लौट चलें घर अपने
यहाँ शरमो-हया के मुखौटे
कब के उतर चुके हैं।
अलसाई शामों के आग़ोश में
बेशर्म परछाइयाँ नाच रही हैं।
चलो लौट चलें घर अपने
घर की छत तुम्हारे लिए मायूस है।
उसकी हद में आते ही
मार-तमाम बातें रह जाती है पीछे
उसके आग़ोश में –
मुँह ढक कर सोना सूकून देता है।
छत ओढ़ लेती है हमारी परेशानियाँ।
चलो लौट चले घर अपने
चलो घर तो अपना है।
हर बेघर का सपना है।
एक उम्र बीत जाती है,
इसे बनाने में।
घर को घर बनाना
ये दुनिया ही सिखाती है।
चलो लौट चलें ऐसे ही घर अपने।
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