बहुत बड़ा गाँव है मेरा
काव्य साहित्य | कविता डॉ. सारिका कालरा1 Jan 2015
‘बहुत बड़ा गाँव है मेरा।’
कहते ही गर्दन ऊँची हो जाती है मेरी
मेरे बचपन में भी बड़ा था
अब भी बड़ा है
पर अब
पत्थर, मिट्टी और लकड़ी से बने घर
सीमेंट के हो गए हैं।
नहीं बढ़ी घरों की संख्या
पर अब भी सबसे बड़ा गाँव है मेरा।
भूरे-भूरे घर रंग-बिरंगे हो गए
हर घर की छत पर अब डिश लगी है।
पंदेरे पर अब बहू-बेटियों की ठिठोली
नहीं सुनाई देती।
गाँव में शांत सभ्य लोगों की संख्या
बढ़ गई है।
नहीं बढ़ी घरों की संख्या
पर अब भी बड़ा गाँव है मेरा।
अब गाँव में रिश्ते तय होने की खबर
किसी को नहीं लगती।
शादी का न्यौता ही मिलता है।
पोस्टमैन की राह अब कोई नहीं देखता।
घर-घर में सबके पास मोबाइल है।
क्योंकि अब बड़ा होने के साथ ही
धनी गाँव है मेरा।
गाँव तो बड़ा है
पर कम हो गई है इसकी आबादी।
बूढ़े ज़्यादा हैं इस आबादी में।
जवानों का कहीं नामों-निशान नहीं
जो इक्का-दुक्का है किस्मत के सताए हैं।
पर हाँ छुट्टियों में गाँव चहकता है।
हर आँगन, हर पेंदेरे पर रौनक लौट आती है।
पर वे टूरिस्ट कुछ दिन बिताकर
लौट आते हैं अपने-अपने ठिकानों पर
लोगों से यह कहने कि
बहुत बड़ा गाँव है मेरा।
(पंदेरा-जहाँ पानी उपलब्ध हो)
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