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आकर्षक नर्क

 

प्रकाश अचंभित था। उसे विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि वो अपने देश भारत के ही किसी शहर में है। क्या भारत सरकार ने देह व्यापार को पूरा वैध कर दिया है? शहर के इस भरे पूरे बाज़ार से गुज़रते हुए तो यही लगता था। हर तीसरे चौथे मकान की दूसरी और तीसरी मंज़िल के कमरों और गेल्ररियों से झाँकती कई-कई हसीनाएँ अपनी मादक अदाओं से भद्दे इशारों से हाथ हिला कर आने जाने वाले लोगों को लुभा रहीं थीं, बुला रहीं थीं। सजी-सँवरी, छोटी-बड़ी गोरी और साँवली सेकड़ों लड़कियाँ रूप और जवानी का मनमोहक माया जाल बिछाऐ हुए थी। क्या इतना सहज उपलब्ध है ये सब? बस चार क़दम बढ़ाओ और लपक लो जिसको चाहो उसको। 

प्रकाश ने अपने शरीर में एक तीव्र उत्तेजना महसूस की। उसकी नज़र इन इमारतों में अन्दर बाहर आ जा रहे कितने ही युवा लड़कों और बुज़ुर्गों के चेहरों को पढ़ रही थी जहाँ एक जिज्ञासा, मादक प्यास और प्राप्ति की अदम्य लालसा झिलमिला रही थी। 

सड़क पर ट्रैफ़िक पर्याप्त था। लोग-बाग बड़ी सहजता से आ जा रहे थे, दुकानों से बड़े सामान्य ढंग से ख़रीददारी कर रहे थे। उन्हें अपने आसपास बिखरे देह के इस मायाजाल से कोई मतलब नहीं था। प्रकाश सदमे में था, यह देख कर कि वहीं ट्रैफ़िक पुलिस का एक जवान अपने अधिकारी के साथ बड़ी मुस्तैदी से खड़ा था ट्रैफ़िक कंट्रोल के लिए। कोई वाहन ग़लत साइड न जाये इसका पूरा ध्यान रखा जा रहा था। ट्रैफ़िक नियमों का सख़्ती से पालन करवाया जा रहा था। उनकी भी नज़र इन देह व्यापारियों पर या देह के ख़रीददारों पर नहीं थी। होती भी क्यों उनकी जवाबदेही थी सड़क का यातायात नियंत्रित रहे, कोई वाहन ग़लत न चले। अब आदमी कितना अनियंत्रित हो रहा है, ग़लत साइड जा रहा है, इस बात से उन्हें कोई मतलब नहीं था। नैतिकता सामाजिकता या सच्चरित्रता को नियंत्रित करना उनकी ड्यूटी में शामिल नहीं था। 

प्रकाश के साथ चल रहे कुंदन ने उसका हाथ दबाया, “ग़ौर से देखता चल प्यारे। जो भी फंटी पसंद आये बता देना वहीं रुक जायेंगे।” प्रकाश अभी भी सहज नहीं हो पा रहा था क्या ऐसा भी चल रहा है अपने देश में? सड़क के दोनों और कई कई लड़कियों और औरतों तथा आसपास के मकानों की गैलरियों से झाँकती इशारे करती किसी भी लड़की को प्रकाश चुन सकता था, उसे भोग सकता था। प्रकाश की उम्र तीस-पैंतीस की ओर अग्रसर थी, लेकिन उसे अपने जीवन में कभी भी, अपनी गली-मोहल्ले या क़स्बे में बल्कि कहीं आसपास के इलाक़े में ऐसी कोई महिला नहीं दिखी, जिसे सरलता से हासिल किया जा सके या जो सहज उपलब्ध हो। और यहाँ उसके ही देश में एक अन्य प्रांत में प्रसिद्ध पूना शहर में उसके चारों और नज़रों के दायरे में ढेरों लड़कियाँ, महिलाएँ थीं जो ना सिर्फ़ अपने देश की बल्कि नेपाल या अन्य देशों की भी थीं। प्रकाश को लगा कि उसका और उसके जैसे कितने ही लोगों का एक पत्नीव्रत इसलिए भी क़ायम है क्योंकि उनके इलाक़े में सरलता से यह देह उत्पाद उपलब्ध नहीं है वरना उन्हें सच्चरित्र बने रहना और भी कठिन हो जाता। 

कुंदन हाथ के इशारे से सामने की और एक बिल्डिंग बता रहा था, जिसका नाम दूर से ही जगमगा रहा था “वेलकम बिल्डिंग”। उस चार माले की बिल्डिंग की हर मंज़िल पर गैलरियों में और खिड़कियों से कितने ही हँसते-मुस्कुराते रंग-बिरंगे कपड़े पहने रूप सुंदरियाँ इशारे कर-कर के राह चलते लोगों को बुला रहीं थीं। कई देह बालाएँ अपने कामुक शरीर को उत्तेजक ढंग से हिला-हिला कर ललचा रही थी। 

“हाँ तो प्यारे प्रकाश अब तैयार हो जा जन्नत का मज़ा लेने के लिए। हूरें तुम्हारा इंतज़ार कर रही है।” 

प्रकाश थोड़ा घबराया, ”ठहर जा यार सामने चौराहे पर एक एक कप चाय पी लें फिर चलते हैं।”

कुंदन भाँप रहा था प्रकाश की घबराहट को, “ओके यार चाय तू पी मेरे पास तो मेरा इंतज़ाम है चल।” कुंदन मुस्कराया उसे आँख मारते हुए चौराहे पर खड़े एक चाय के ठेले की और बढ़ चला। प्रकाश जानता था कि कुंदन ने अभी कुछ देर पहले ही व्हिस्की का एक हाफ़ ख़रीदा है। 

चाय पीते पीते प्रकाश सोचने लगा आख़िर यहाँ तक आ ही पहुँचा वह? 

वैसे प्रकाश शादीशुदा एक बच्चे का पिता था। एक कंपनी में अच्छी पोस्ट पर था। हिंदी इंग्लिश फ़िल्मों को देखते, टी वी कंप्यूटर पर एडल्ट चैनलों के बीच सर्फ़िंग करते उसका मन कभी-कभी बहुत विचलित हो जाता था, अपनी युवा उम्र का ज़्यादा से ज़्यादा मज़ा लेने के लिए। 

प्रकाश की पत्नी नीलू एक आदर्श पत्नी थी सरल सौम्य और सादगी की प्रतिमूर्ति। प्रकाश ने लाख चाहा कि नीलू भी नए रंग-ढंग में ढल जाये, मॉडर्न कपड़े पहने आकर्षक और उत्तेजक परिधानों में अत्याधुनिका सा व्यवहार करे। किन्तु ऐसा न हो सका और इन्हीं कुंठाओं से प्रकाश के मन में एक इच्छा दृढ़ रूप में हमेशा बनी रही कि घर में नहीं तो बाहर कभी भी कहीं भी उन्मुक्तता के इन वर्जित क्षेत्रों में ज़रूर विचरण करेगा। प्रकाश की इस तरह की अनुचित लालसा को बढ़ावा देता था। उसका मित्र कुंदन जो स्वयं भी इसी राह का राही था और पहले भी दो-चार बार पूना, कलकत्ता की यात्राएँ कर चुका था, जहाँ उसे देह व्यापार का अद्भुत अकल्पनीय विस्तृत संसार देखने को मिला था और जहाँ उसने उस तथाकथित आनंदलोक की कई-कई बार यात्रा की थी। कुंदन बहुत रंगीन तबियत का विलासी प्रवृत्ति का व्यक्ति था, जिसका बेसिक फंडा ये था कि, अपने आसपास के सभी लोगों के बीच किसी लड़की या महिला को छेड़ने या पटाने का ख़तरा लेने की बजाय रुपये फेंको मज़े लो वाला सिद्धांत ज़्यादा अच्छा है। कोई रिस्क नहीं कोई शिकायत नहीं। 

प्रकाश थोड़ा संयमित इज़्ज़तदार, “लोग क्या कहेंगे” वाली सोच रखता था लेकिन आम लोगों की तरह मन ही मन स्वाद की विभिन्नता की इच्छा भी रखता था और ये अफ़सोस या हीनता भी दिल में पालता था कि वो आज तक अपनी पत्नी के अलावा किसी और स्त्री से देहसुख नहीं पा सका। जबकि उसके यार दोस्त अपनी बहादुरी के क़िस्से सुनाते रहते थे। वो कुंदन के बारे में भी जानता था कि कुंदन पक्का खिलाड़ी था मौक़ा मिलते ही चौका मार देता था। कितने ही चौक्के-छक्के मार चुका था। 

संयोग ऐसा बना कि विभागीय ट्रेनिंग के लिए दोनों का नाम चयनित हुआ और ट्रेनिंग सेंटर था यह शहर, जो अन्य बातों के अलावा देह व्यापार के एक बड़े केंद्र के रूप में भी मशहूर था। ट्रेन में आते समय रास्ते में इस शहर के बाज़ारों के चर्चे करता रहा कुंदन, और प्रकाश को तैयार करता रहा। हालाँकि प्रकाश अलग-अलग तर्कों से बचने की कोशिशें भी करता। “ये सब पाप है यार कुंदन,” जब प्रकाश ने असमंजस भरे स्वर में कुंदन को कहा तो हँस पड़ा कुंदन, “यार प्रकाश क्या पंडित बन रहा, क्या पाप और क्या पुण्य? क्या हम किसी से ज़बरदस्ती कर रहे हैं? वो सब तो दुकान लगा लगा के बैठी हैं; हम उनको पेमेंट कर रहे हैं और अपनी ख़ुशियाँ ख़रीद रहे हैं।” 

“और अगर पुलिस ने धर लिया तो?”

“अरे महाराज यहाँ सैंकड़ों, हज़ारों लड़कियाँ, औरतें खुलेआम ये धंधा कर रही है, पुलिस की नाक के नीचे। कोई नहीं पकड़ता उन्हें।” 

“पर यार में इस काम के ज़्यादा पैसे ख़र्च नहीं करूँगा,” प्रकाश ने कुछ संकोच से कहा। 

“कितने करना चाहोगे?” कुंदन ने हँसते हुए पूछा। 

प्रकाश कुछ जवाब नहीं दे पाया अचकचा गया, बोला, “मेरा मतलब है ऐसे ग़लत काम में ज़्यादा पैसा ख़र्च करना ठीक नहीं।” 

“भाईसाहब वहाँ २००-४०० से लेकर २०००-४००० वाली भी है। और नीचे उतरना हो तो सौ–पचास वाली भी मिलेगी।” 

“पर इतने कम पैसों में कुछ अच्छा मिलेगा?” प्रकाश ने अपनी शंका ज़ाहिर की। 

“बेटा जब हम ड्रिंक करते हैं तो चने और नमकीन खाते हैं। कोई शौक़ीन पैसों वाला ड्रिंक करता है तो काजू बादाम खाता है। तो ये तो अपनी अपनी क्षमता अपने-अपने शौक़ हैं।” 

“अच्छा एक आख़री बात और,” प्रकाश ने कुछ कुछ संकोच करते हुए पूछना चाहा। तभी उखड़ गया कुंदन। 

“तू रहने दे यार प्रकाश, तू अपने होस्टल रूम में ही रहना। हनुमान चालीसा पड़ना मैं अकेले ही मज़े ले लूँगा जितने लेना है। तुझसे तो में हार गया यार।” 

“बस आख़री बात प्लीज़,” कुंदन की नाराजी को रोकते कुछ रिरियाते प्रकाश ने अपनी शंका ज़ाहिर की, “यार आजकल वो उसका बहुत हो-हल्ला है।” 

“किसका?” 

“वो एड्स का। कहते हैं कि ऐसी लड़कियाँ बीमारियों का घर होती हैं।” 

“चुप साले, तूने एड्स का सुना है तो तूने कंडोम का नहीं सुना? बोल?” 

“हाँ वो तो है।” 

“बस फिर क्या तकलीफ़, क्यों डरता है। तू एक की जगह दो दो यूज़ करना और मुझे देख पिछले ७-८ साल हो गए मस्ती छानता हूँ। कभी कुछ हुआ क्या?” 

“हाँ, ये तो है यार,” प्रकाश कुछ आश्वस्त हुआ। 

“बस अब सोचना छोड़ दे; अब ढीला मत पड़ना। हम महीने भर में कम से कम चार-पाँच बार मज़े मारेंगे।” 

“ओ के भाई।” प्रकाश हथियार डाल चुका था। अब उसकी मनोदशा मज़े लेने की कल्पना से उत्साहित होने लगी। प्रकाश ने मन ही मन तय किया कि बहुत खा चुका घर की दाल-रोटी अब तो वो खायेगा बाज़ार की चाट पकोड़ी . . . लेकिन तभी उसके ज़ेहन में एक तस्वीर उभरी, नीलू . . . उसकी पत्नी की। उसकी सुन्दर प्यारी वफ़ादार पत्नी नीलू की जो उस पर बहुत विश्वास रखती थी। जब नीलू को इस ट्रेनिंग का पता चला तो वो चौंकी थी डरी भी थी। “उस लफ़ंगे के साथ तो कभी मत जाओ वो बिगाड़ कर रख देगा तुमको।” 

प्रकाश ने नीलू को पूरा विश्वास दिलाया कि वो कुंदन के साथ बिलकुल नहीं रहेगा। 

“क्या सोच रहा है यार चाय ख़त्म कर चल जल्दी, मेरे से तो अब नहीं रुका जा रहा,” कुंदन उसे झिंझोड़ रहा था। 

“ओह हाँ चलो यार,” प्रकाश चल पड़ा और दोनों वेलकम बिल्डिंग के सामने जा पहुँचे। शाम का धुँधलका चारों और फैल चुका था। रात अभी दूर थी, पर रात की अगवानी में दुकानों पर रोशनियाँ हो रही थी। पूरा बाज़ार जगमगा रहा था और प्रकाश और कुंदन की नज़रों में सबसे ज़्यादा चमक रही थी वेलकम बिल्डिंग, और वेलकम बिल्डिंग सजी हुई थी। उसकी चारों मालों की गैलरी और खिड़की-दरवाज़ों से झाँकती पंद्रह-सोलह साल से लेकर तीस-पैंतीस सालों वाली ढेरों सुंदरियों से। 

प्रकाश बहुत उत्साहित था, उत्तेजित और तनाव में भी था। वो अपने आप को उस शानदार मज़े के काफ़ी नज़दीक समझ रहा था। उसकी हीन ग्रंथी कि उसने पत्नी के अलावा आज तक अन्य किसी से नारी सुख प्राप्त नहीं किया, अब शीघ्र ही दूर होने वाली थी। वो अपनी कल्पना में तय कर रहा था कि यहाँ एक महीने रहना है एक महीने में कम से कम आठ-दस बार तो अलग-अलग स्वाद के मज़े लूँगा। वो रोमांचित था अपनी संभावित कीर्तिमानों की योजना से। 

वेलकम बिल्डिंग के निचले प्रवेश-द्वार पर ही दो-तीन लड़कियाँ खड़ी थीं उनका रास्ता रोकने की मुद्रा में। “आ जाओ बाबूजी, वेलकम सर, चाहिए क्या?, मज़े लेना है क्या?”आदि आदि कमुक संवादों की बौछारों से तीनों लड़कियों ने अपना-अपना आमंत्रण दिया। प्रकाश ठिठका और तीनों में से चुनने लगा तभी कुंदन ने धक्का दिया, “अबे यहाँ क्या रुकता है अन्दर चल ख़ास माल तो अन्दर है।” 

“अरे अन्दर क्या कुछ अलग है? सबके पास यही तो है, जो हमारे पास है,” एक लड़की ने मुस्कुराते हुए प्रकाश का हाथ पकड़ा। सहमते हुए प्रकाश ने अपना हाथ छुड़ाया और कुंदन के साथ पहले माले की सीढ़ियों की ओर चल पड़ा। बिल्डिंग की पहली मंज़िल का चढ़ाव चढ़ना प्रारंभ किया ही था कि प्रकाश को लगा सारा वातावरण ही एकदम बदलने लगा है। उसके नथुनों में एक अजीब क़िस्म की गंध आने लगी। क्या था इस गंध में? कैसी थी यह गंध? कहना मुश्किल था। लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे सिगरेट का धुआँ या तंबाकू की गंध या पान की महक और साथ में गुलाब या चमेली की सुगंध या बासी फूलों की गंध इन सब का मिला-जुला नया ही कुछ था। तभी हवा में फिर एक परिचित गंध भी फैली यह थी शराब की तेज़ गंध। प्रकाश समझ रहा था यहाँ तो यही सब कुछ मिलेगा शराब, सिगरेट पीने वाले, पान तंबाकू खाने वाले, बीड़ी सिगरेट का धुआँ उड़ाने वाले लोग। प्रकाश अचकचाया लेकिन इन्हें भूलते हुए सीढ़ियाँ चढ़ने लगा, मन ही मन ख़ुद को तैयार करने लगा, आने वाले रोमांचक क्षणों के लिए। प्रकाश के मन में एक जिज्ञासा तो थी मिलने वाले नवीन देहसुख की लेकिन साथ में कोई भय भी था और कहीं हल्की-सी अरुचि भी। 

पहली मंज़िल की सीढ़ियाँ पूरी होते ही दोनों तरफ़ दो हाल थे, जिसमें ५-५, ७-७ लड़कियाँ सजी-सँवरी बैठी थीं। कुछ तैयार हो रही थीं, कुछ चाय पी रही थीं तो कुछ नाश्ता भी कर रही थीं। प्रकाश उस हाल में घुसने लगा तभी उसकी नज़र हाल के दरवाज़े के बाहरी तरफ़ रखी एक बड़ी कोठी नुमा बरतन पर पड़ी, साथ ही बदबू का एक झोंका नाक में घुसा। प्रकाश को उस बदबू का साम्य ढूँढ़ने में देर न लगी। कई बार शहरों के बस स्टेंड के पेशाबघरों में या सिनेमाघरों के पेशाबघरों में ऐसी गंध प्रकाश ने महसूस की है जहाँ वो बड़ी मुश्किल से तीन-चार मिनिट साँस रोकते हुए बाहर निकालने के प्रयास करते थे। बस वैसी ही कुछ गंध जिसमेंं पान मसालों की भी गंध शामिल थी यहाँ भी आ रही थी। 

अनचाहे ही प्रकाश की नज़रें उस कोठीनुमा बरतन के खुले मुँह पर चली गई और उसे अन्दर पड़ी सामग्री भी दिखी। सामग्री देखते ही प्रकाश जुगुप्सा से भर गया। कई कई उपयोग किये हुए निरोध जो बेतरतीबी से बिखरे पड़े थे, कुछ मसले हुए गुलाब के फूल गजरे या मालाएँ और पान के थूके हुए अवशेष और हाँ शायद सफ़ेद कपड़ों के टुकड़े . . . “उफ़ यार कुंदन ये कहाँ ले आया बड़ा गन्दा है यार यहाँ तो,” प्रकाश ने कुंदन को कोहनी मारी। 

“अरे यार वो सब मत देख, इधर चल हम दूसरी मंज़िल पर चलते हैं, वहाँ अच्छा माल मिलेगा।” 

कुंदन ने प्रकाश का हाथ पकड़ा और उसे ले चला दूसरे माले पर। प्रकाश को भी लगा शायद यहाँ नीचे वाला हिस्सा सस्ता और कमज़ोर ग्राहकों के लिए होगा, ऊपर शायद साफ़ स्वच्छ अच्छे लोग मिले। प्रकाश और कुंदन दोनोंं दूसरे माले पर पहुँचे। वहाँ भी दोनोंं तरफ़ दो हाल थे और दरवाज़ों पर वैसी ही प्लास्टिक की बड़ी बड़ी कोठियाँ थी लेकिन अबकी बार प्रकाश ने उन कोठियो की और ज़रा भी नहीं देखा, दोनोंं सीधे हाल में घुस गए। 

लम्बे पंद्रह बाय तीस के हाल की एक दीवार से लगे पाँच सात सोफ़े रखे थे जिनपर आठ-दस जवान और अधेड़ और कुछ तो बिलकुल कम उम्र के कमसिन लड़के भी बैठे थे। हाल की दूसरी दीवार से एक के बाद एक लगे हुए छोटे-छोटे केबिन बने थे जिनके दरवाज़ों पर मोटे परदे लटक रहे थे। प्रकाश समझ गया इन केबिनों में ही . . . सब कुछ हो रहा होगा . . . वे दोनोंं भी ख़ाली पड़े सोफ़े पर बैठ गए। सोफ़ों पर बैठे सभी प्यासों की नज़रें लगातार हाल के बीच में बिछे कालीन पर बैठी अलग-अलग उम्र की सात-आठ लड़कियों महिलाओं पर जमी हुईं थीं जिनमें कुछ तो तैयार हो रही थीं, कुछ सोफ़े पर बैठे ग्राहकों को इशारे कर रही थीं। 
वहीं एक कमसिन सी सत्रह-अठारह साला लड़की केवल ब्लाउज पेटीकोट में इधर-उधर मस्ती करती खिलखिलाती घूम रही थी। बीच-बीच में सोफ़े पर बैठे लोगों के बीच जाकर बैठ जाती, उनसे छेड़ख़ानी करती उनके हाथ की सिगरेट लेकर ख़ुद कश खींचने लगती। निसंदेह वो मज़ेदार लग रही थी प्रकाश को भी वो अच्छी लगी। वो सोच ही रहा था उसके बारे में कुंदन को इशारा करने को, तभी वहीं सोफ़े पर बैठे एक अधेड़ से चचाजान खड़े हुए उसका हाथ पकड़ा और चल पड़े एक केबिन की ओर। लड़की ने भी मुस्कुराते हुए उस अधेड़ के गले में हाथ डाला और दो क़दम चलकर ही रुक गई, “पहले माल निकालो दद्दू।”

“कितने?” अधेड़ ने जेब में हाथ डालते हुए पूछा। 

 “पूरे पाँच सौ।” लड़की मुस्कुरा रही थी। अदाएँ बता रही थी। अधेड़ ने पाँच सौ का नोट थमाया और लड़की को लेकर केबिन में घुस गया . . . प्रकाश अवाक् सा देखता ही रह गया वो लड़की उसे अच्छी लगी थी लेकिन अब वो उस अधेड़ के साथ . . . उफ़ इतनी मासूम-सी लड़की उस बुड्ढे के साथ। तभी उसके पास बैठा एक नौजवान सा व्यक्ति बुदबुदाया, “मुझे तो यही शानदार लगी है मैं तो इसी के मज़े लूँगा आज।” प्रकाश चौंका यानी अभी वो बुड्ढा अन्दर गया है फिर ये नौजवान अन्दर जायेगा फिर मैं जा पाऊँगा। फिर मेरे बाद चौथा पाँचवाँ फिर छठा जाने कितने लोग? 

ऐसा रोज़-रोज़ होता होगा। उफ़ बाप रे! प्रकाश की कल्पना तेज़ी से काम कर रही थी वो सोच रहा था अन्दर केबिन में वो अधेड़ लड़की के कपड़े उतार रहा होगा फिर उसे झूठा बनावटी प्यार कर रहा होगा। फिर उसे दबोचने की तैयारी कर रहा होगा। 

फिर ऐसा ही वो नौजवान भी करेगा। प्रकाश कुछ और सोचता तभी केबिन का दरवाज़ा खुला और वो अधेड़ बाहर आ रहा था एक विद्रूपता पूर्ण अरुचिकर हँसी लेकर, अपना मुँह खोलता हुआ जिसमें से उसके टेढ़े-मेढ़े गंदे दाँत बाहर झाँक रहे थे। उसका रुख़ सीधे बाहर की ओर था। प्रकाश के मन में जाने कैसे भाव पैदा होने लगे। एक विचित्र सी अरुचिकर अवसादपूर्ण स्थिति का एहसास होने लगा। फिर सोचा प्रकाश ने, उसे लगा कि यहाँ की हर लड़की या औरत ऐसे ही रोज़ाना एक के बाद एक ५-७-८ जाने कितने ही कैसे-कैसे मर्दों के साथ सोती होगी। यह सोचते ही अचानक प्रकाश के दिमाग़ में नीलू आ गई। उसका मासूम सा चेहरा उसका प्यारा-सा शरीर दिखने लगा। प्रकाश तुलना करने लगा वहाँ की सारी लड़कियों से नीलू की। प्रकाश की हालत ख़राब होने लगी। उसे लगा वो किसी गंदे-मटमैले पानी की नदी में फैले कीचड़ में धँसता जा रहा है। जिसके किनारे पर खड़ी नीलू उसे हाथ हिला-हिला कर बुला रही है। प्रकाश ने अपने आप को सम्हाला। उसने सोचा यदि वो ऐसे ही भावुक हुआ तो यहाँ कुछ भी नहीं कर पायेगा। तभी कुंदन ने प्रकाश की पीठ पर धप्पा मारा, “अबे क्या सोच रहा है? पसंद कर कोई भी और ले जा अन्दर।” 

प्रकाश ने हाल में बैठी सारी लड़कियों पर नज़र डाली उसे सभी एक जैसी ही लगीं चिकनी-चुपड़ी क्रीम पावडर से पुती हुई एक अजीब क़िस्म की गंध फैलाती होंठों से नक़ली बेशर्मी पूर्ण हँसी और नज़रों से अश्लील इशारे करती हुई। 

प्रकाश ने कुंदन को कहा, “तू जा पहले मैं आता हूँ किसी को पसंद कर के।” 

कुंदन मुस्कराया, “डरता है क्या साले? मैंने तो पसंद कर ली है वो भरी-पूरी गदराई हुई हट्टी-कट्टी, सुडोल गोरी,” उसके इशारे की और प्रकाश ने देखा कोने में बैठी एक तेईस-चौबीस साल की औरत जो अपने बच्चे को दूध पिला रही थी। 

प्रकाश चौमका लड़की माँ बन चुकी है, फिर भी धंधे में लगी हुई है। कुंदन ने हाथ के इशारे से उस औरत को बुलाया और उसने भी हाथ के इशारे से कहा आती हूँ। कुंदन उसका रास्ता देख रहा था। वो महिला खड़ी हो चुकी थी पर उसका बच्चा उसे छोड़ ही नहीं रहा था। वो बच्चा जिसे अपनी भूख के आगे इन दोनों की प्यास का कोई एहसास न था। 

कुंदन बेचैन था उसका मज़ा लेने को और वो युवती भी अपनी कमाई के लिए बेसब्र थी। तीन-चार मिनिट बीते न बीते कुंदन ने फिर इशारा किया उसे। तभी एक कोने में कुर्सी पर बैठी एक प्रौढ़-सी महिला जो शायद सब लड़कियों की बॉस लग रही थी गुर्राते हुए चिल्लाई, “रेखा ऐ रेखा उठ जा, खड़ी हो जा अब कस्टमर को कितना वेट कराएगी इतना वेट नॉट ओ के। बच्चा माला को दे दे जा जल्दी।”

और रेखा नाम की उस देह ने अपने दूध पीते बच्चे को अपने स्तनों से दूर हटाकर साथ वाली माला नाम की लड़की को दे दिया। एक डेढ़ साल का बच्चा मचल उठा उसकी भूख शायद अभी नहीं मिटी थी। वो नहीं जानता था कि शाम के सात बजे बाद उसकी भूख को मर जाना चाहिए क्योंकि कई दूसरों की प्यास जाग उठती है। बच्चा माला की गोद में जाकर भी रोने चिल्लाने लगा लेकिन उससे बिलकुल बेख़बर रेखा केबिन की और जा रही थी। केबिन के बाहर ठिठकी तभी कुंदन ने उसे सौ-सौ के तीन नोट सुपुर्द किये और उसे लेकर केबिन के अन्दर चला गया। 

प्रकाश हतप्रभ था। उसकी एक नज़र केबिन की ओर जा रहे कुंदन और रेखा पर थी तो दूसरी नज़र माला की गोद में रोते बिलखते बच्चे पर थी जो चुप होने का नाम ही नहीं ले रहा था। प्रकाश का मन हाहाकार कर उठा। कई भाव विकृत होकर उसके विचारों के साथ तांडव नृत्य करने लगे। अरुचि और विद्रूपता के भाव तो थे ही उसकी सोच में लेकिन अब करुणा, आक्रोश और विद्रोह के भाव भी दिमाग़ में समाहित होने लगे . . .

किंकर्तव्यविमूढ़ सा वह सोचने लगा क्या करूँ? कुंदन को बुला लूँ वापस बाहर? और रेखा नाम की उस औरत को कहूँ पहले इस बच्चे की भूख मिटा, फिर किसी की प्यास मिटाना। प्रकाश सोचने लगा तभी उस प्रौढ़ महिला की कर्कश आवाज़ फिर गूँजी, “माला बाहर ले जा इस हराम के पिल्ले को सबका दिमाग़ ख़राब कर दिया साली ने। उसको बोलना कल से बच्चे को यहाँ लेकर ना आये वरना घुसने नहीं दूँगी। साली सारा धंधा चौपट कर देगी ऐसे तो।” 

सारा हाल स्तब्ध था। सोफ़ों पर वहाँ बैठे सारे यौवन रस के पिपासु ग्राहक अपने चेहरे आड़े-तिरछे छुपाते हुए आपस में नज़रें नहीं मिला पा रहे थे। तभी माला उठी, रोते हुए बच्चे को लेकर बाहर चली गई। 

कुछ देर की ही निस्तब्धता के बाद हाल का वातावरण फिर सामान्य होने लगा था। प्रकाश की नज़रें उस बंद केबिन पर लगी थी जिसके अन्दर कुंदन और रेखा कुछ पा रहे थे एक दूसरे से। कुंदन शायद रेखा से पा रहा था अपनी विकृत वासना की संतुष्टि और रेखा पा चुकी थी कुंदन से अपने जीवनयापन की अपने शरीर की एक निश्चित राशि। दोनों संतुष्ट होंगे पर प्रकाश बहुत उद्विग्न था। क्या यही सेक्स सुख है? यही मस्ती है? उसका दिमाग़ फट पड़ना चाह रहा था उसका वहाँ बैठना मुश्किल हो रहा था। 

प्रकाश का मन हुआ कि जाकर ज़ोर से उस केबिन का दरवाज़ा भम्भोड़ दे। रेखा और कुंदन को बाहर निकाले और रेखा को अपनी जेब से तीन सौ रुपये देकर कहे कि जा जाकर अपनी बेटी को दूध पिला। लेकिन इतने सब के बीच वो कुछ नहीं कर पाया। उसके बस में जो था वही किया उसने। वो खड़ा हुआ, तेज़ चाल से हाल से बाहर निकला सीढ़ियाँ उतरने लगा। नीचे माला अब भी अपनी गोद में रेखा के बच्चे को लिए चुप करने की कोशिश में लगी थी। बच्चा चुप नहीं हो रहा था। प्रकाश ने एक नज़र उन दोनों पर डाली और भागना शुरू किया। वो जल्दी से जल्दी इस नरक से दूर होना चाहता था वो नरक जो बाहर से तो बहुत आकर्षक लग रहा था सोचने में भी बहुत आकर्षक था लेकिन था तो नर्क ही। 

अपने कानों पर हाथ रखे उस रोते-बिलखते बच्चे के रोने की आवाज़ से बचते हुए प्रकाश ने एक ऑटो को हाथ दिया, होस्टल का पता बताया और सर पकड़ कर बैठ गया। वो तत्काल दूर, बहुत दूर चला जाना चाहता था इस नर्क से, जिसे लोग मस्ती का बाज़ार कहते थे जो शारीरिक सुख प्राप्त करने का ख़ास इलाक़ा माना जाता था।

रास्ते भर दोनों ओर उसे कई चेहरे दिखे। लाली, पावडर, चुपड़े, नक़ली खोखली हँसी हँसते चेहरे जो उसे विद्रूप किये जा रहे थे। उसे एक ही सोच सता रही थी कि इस बाज़ार के जाने कितने ही बच्चे अपनी माँओ के धंधे का टाइम शुरू हो जाने के बाद भूखे रह जाते होंगे। और इन भूख से बिलखते बच्चों की माँएँ जाने कितने कामातुर पुरुषों की गंदगी अपने शरीर में समाहित कर रही होगी। प्रकाश इन सब से बचता जल्दी से जल्दी अपने होस्टल पहुँचना चाहता था। तभी ऑटो ड्राइवर ने मुस्कुराते हुए पूछा, “बाबूजी मज़े लेना है क्या? एक दम फ़्रेश मज़ेदार माल मिलेगा।” 

प्रकाश चौंका, विचलित हुआ और फिर गुर्राया, “शटअप चुपचाप चलो कुछ मत बोलो।”

“ठीक है बाबूजी, मैं तो पूछ रहा था।” 

“कुछ मत पूछो, कुछ मत बोलो जल्दी चलो, मुझे यहाँ से बाहर निकालो,” प्रकाश ने फिर से चिल्ला कर कहा और अपने आँखों कानों पर अपने हाथ रख लिये। 

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