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मैं पेड़ हो गया

 

मुझे लगा मैं एक पेड़ हूँ। 
तपती दोपहरी में, 
चिलचिलाती धूप में, 
अकेला खड़ा हूँ। 
राहगीर कई आ जा रहे हैं। 
लेकिन रुकना तो दूर, 
मेरी ओर नज़र डालें, 
इतना भी समय नहीं उनके पास। 
पिछले कई दिनों से, 
कोई पंछी नहीं चहका। 
मेरी डाल पर किसी ने
घोंसला नहीं बनाया। 
मुझे याद है, 
हरे हरे पत्तों से भरी डालियों से
सजा मैं, 
मेरी छाँव में घंटों बैठे, 
कई थके अलसाये मुसाफ़िर। 
चहकती चिड़ियाँ
कूकती कोयलें
और घोंसलों में चीं चीं करते
चिड़िया के नवागत बच्चे। 
मेरे मीठे फलों के चर्चे
दूर दूर तक चारों ओर। 
लेकिन . . .! 
लेकिन ये पतझड़ का मौसम
ये गर्मी के दिन क्या आये! 
सब कुछ बदल गया। 
मैंने नज़र डाली, 
ख़ुद पर, ख़ुद के आसपास। 
सूखी डालियों के कंकाल सा
खड़ा था मैं। 
ना फूल ना फल
ना एक भी हरी पत्ती। 
फिर क्यों आयेगा कोई मेरे पास। 
क्यों डालेगा नज़र मुझ पर। 
कोई कोयल, कोई चिड़ियाँ क्यों चहकेंगी। 
आश्चर्य है . . .! 
बस ज़रा सा मौसम ही तो बदला था
सब कुछ बदल गया। 
मैं पेड़ होकर भी हँस पड़ा। 
दुनिया कितनी तेज़ी से बदलती है। 
लेकिन मुझे विश्वास था। 
कोई है जो कभी नहीं बदलता। 
चाहे प्रकृति कह लो चाहे ईश्वर
वो फिर भेजेगा बारिश। 
फिर चलेगी मन्द मन्द बयार
धरती से फिर मिलेगी, 
उर्वरता। 
और लहलहाने लगूँगा में। 
दुनिया वालों का तो क्या है, 
समय बदलते ही फिर आने लगेंगे
मेरे नज़दीक। 
देखेंगे मुझे प्रशंसित नज़रों से
चिड़िया फिर चहकेगी
कोयल फिर कूकेगी
कई घोंसले बन जायेंगे फिर से। 
और मेरे फलों के चर्चे
फिर गूँजेंगे चारों तरफ़। 
बस मुझे संयमित रहना है, 
धेर्य से व्यतीत करना है
यह ग्रीष्म। 
बचा के रखना है अपना अस्तित्व
करना है इन्तज़ार
फिर से ईश कृपा का। 
जो बरसेगी फिर से
सावन के मेह की तरह। 

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