मेरा ईश्वर
काव्य साहित्य | कविता महेश शर्मा1 Jan 2024 (अंक: 244, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
ईश्वर सबके होते हैं।
अच्छे के भी, बुरे के भी
खरे के भी खोटे के भी
छोटे और बड़े के भी
इस धर्म के भी, उस धर्म के भी
और विधर्मी के भी।
जो मानता है उसके भी
और जो नहीं मानता उसके भी।
बस
सबका रूप रंग, और रहने का स्थान
अलग अलग है।
किसी का ईश्वर भव्य मन्दिरों में
विशाल प्रासादों में रहता है तो
किसी का होमों हवन में, ध्यान और भजन में।
किसी का आग में, पानी में
जंगलों पहाड़ों में, नदी और तालाबों में
किसी का तोप तलवारों में
बम और बन्दूकों में भी।
कुछ का ईश्वर पुर्व में
कुछ का पश्चिम में।
और बहुत सारों का दूर आकाशों में।
लेकिन मेरा ईश्वर तो इनमें से कहीं नहीं रहता।
वो किसी एक जगह
बँधकर भी नहीं रहता।
वह तो,
यत्र तत्र सर्वत्र है
कली में फूल में
आँगन की धूल में
हँसने में रोने में
जागने में सोने में
हर बच्चे में हर बूढ़े में
आदमी में भी औरत में भी छुपा है
बल्कि वो मुझमें भी समाया है
यानी हर जीव में वो नुमायाँ है।
इसीलिये मैं हमेशा
चौकन्ना रहने की कोशीश करता हूँ
इस सर्वव्यापी ईश्वर के हर रूप के प्रति।
श्रद्धा और विश्वास, सेवा और सम्मान
और कुछ त्याग की भावना
कभी कम ना हो
उसकी अवमानना और अपमान कभी ना हो
उसका हर प्रतीक, उसकी हर रचना
मुझ पर प्रसन्न रहे।
बस यही मेरी ईश्वर पूजा है।
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