आँखें
काव्य साहित्य | कविता शशि कान्त विज1 Oct 2023 (अंक: 238, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
जन्म हुआ तो आँखें खोलीं,
सबकी आँखें थी हम पर लगीं।
कुछ की आँखें रहीं फटीं
और कुछ की आँखें फिरी फिरी
इन आँखों ने कुछ आँखों को जाना
आँखें थीं तभी तो पहचाना
यह आँखें जब थोड़ी बड़ी हुईं
आगे थी शामत पड़ी हुई
कुछ पलकें झपकने को यह बात न थी
आँखों के सपने की बात यह थी।
आँखें जो चुराईं, मिले कड़वे जवाब
आँखें जो मुंदाई, वहीं अध्यापक वाले ख़्वाब॥
आँखों आँखों में कुछ और दिन कटे
दुखॊं के बादल थे जैसे छँटे।
दो से आँखें अब हुईं चार
आँखें कर गई आँखों को पारll
शुरू हुआ आँखें बिछाने का सिलसिला
हुई जो देर, तो आँखें दिखाने का सिलसिला
दूसरी ओर, आँखें छलकने का सिलसिला
गिर कर जिसने धो दिया हर गिला।
आँखें चार के अब दिन गए
अब होगी गर, तो आँखें आठ ।
अब करते हैं, सदा पूजा पाठ
किसे पता कल पकड़नी पड़े यह खाट॥
चाल अब मध्यम और धड़कन मन्द
हो गई आख़िर, यह आँखें बन्द॥
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