आस्था (प्रकाश चण्डालिया)
काव्य साहित्य | कविता प्रकाश चण्डालिया19 Nov 2008
एक मकान
बिल्कुल सुनसान
एकदम वीरान
पड़ा है खण्डहर सा।
नुक्कड़ पे
बन्द और बेसुध
खड़ी है एक झुलसी दुकान।
न जाने क्यूँ
वहाँ आते हैं लोग, फिर भी
और देखते हैं नज़ारा, करते हैं चढ़ावा।
श्मशान के उस पार है वह।
भयावह, शायद कोई शिवालय...
सूर्य की अलसाई किरणों सा
चमकता कहाँ है वह अब।
नतमस्तक होता है आदमी
फिर भी
न जाने क्यूँ।
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