आत्महत्या
काव्य साहित्य | कविता अमिषा अनेजा1 Jul 2020 (अंक: 159, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
ख़बर आयी है अभी
एक कलाकार ने कर ली है आत्महत्या
कल भी और उससे पहले भी
आयी थी ऐसी ही ख़बर कि
एक विद्यार्थी ने, एक औरत ने,
एक युवक ने,एक वृद्ध ने
एक भूखे ने, एक नाकाम ने
एक प्रसिद्ध आदमी ने,
और एक आम ने,
खा लिया है ज़हर,
ऊँची इमारत से कूद कर दे दी है जान
गले में लगा लिया है फंदा
तेज़ भागती रेल की पटरी पर
कट कर दे दिए हैं प्राण
आत्महत्या में ‘आत्म’ तो मरता है
पर ‘हत्या’ हो जाती है बरी
खुद से बेपनाह मुहब्बत करने वाला इंसां
कैसे ख़ुद से करता है यह धोखाधड़ी
वो निर्ममता से ख़ून करता है
अपनी भावनाओं का...
अपने सपनों का...
अपने माज़ी का...
अपने मुस्तकबिल का ...
हर उस एहसास का ...
जो उसे अज़ीज़ था ...
हर वो रिश्ता...
जो उसके क़रीब था ...
उस समय उसकी आँखों में
होती है वहशत या दहशत
ये कौन जान सकता है
शायद खड़ा रहता है वह
किसी अंधकूप के मुहाने पर
जिसके भीतर से कोई
उसे पुकारता है ज़ोर ज़ोर से
जिसे वह अनसुना नहीं कर पाता
उसके पूरे वजूद पर चिपक जाते हैं
इन आवाज़ों के मकड़जाल
छटपटाता तो होगा वो उन पलों में
छूटने की आख़िरी कोशिश तो करता होगा
लेकिन बंद दरवाज़े के बाहर की दुनिया का
चिंघाड़ता तूफ़ान ज़्यादा ख़ौफ़नाक
ज़्यादा काला और अँधेरा लगता होगा
तब अंधकूप केअंतहीन अंधकार में
झोंक देना ख़ुद को
लगता होगा सुकूनदायक
सारे शोर से मुक्त होने का एक रास्ता
बदहवास नींद रहितआँखों को
जैसे आरामदायक नींद का वास्ता
अपनी देह पर हल्की सी खरोंच
ज़रा सी आँच भी ना सह पाने वाला
कैसे आक्रामक हिंसक हो जाता है
और अपने ही आप को नोच खाता है
ये वो हत्या है जिसकी सज़ा-ए- मौत
तय है हत्यारे के लिए हर हाल में
बस बेदाग़ बच जाते हैं वो सब
जो हत्या की साज़िश में शामिल थे
स्वार्थी, लोभी भेड़िए मनुज की खाल में
फिर चंद लफ़्ज़ों में
निपट जाती है इक ज़िंदगानी
टीसती यादें, मुट्ठी भर राख
और कुछ आँखों में पानी।
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Rajender Verma 2020/07/03 08:00 AM
बेदाग बच जाते हैं जो साजिश में शामिल थे क्योंकि सबूत मुकाबिल न थे I संवेदना से परिपूर्ण अभिव्यक्ति I