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ऐसा देस है मेरा: देश के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ह्रास पर चिंता और चिंतन का दस्तावेज़ 

समीक्षित पुस्तक: ऐसा देस है मेरा
लेखक: प्रभात कुमार
प्रकाशक: नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्य नगर सोसाइटी, प्लाट-91, आई.पी. एक्सटेंशन, दिल्ली-110092

रचनात्मकता प्रभात कुमार के व्यक्तित्व की पहचान है। किन्तु उनकी रचनात्मकता एकोन्मुखी नहीं बल्कि कई दिशाओं में अग्रसर है। व्यंग्य के अतिरिक्त उनकी कहानियाँ, कविताएँ, रिपोर्ताज, चित्र, कार्टून आदि देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। वे नाटकों के अभिनय, लेखन और निर्देशन से भी जुड़े हैं तो ड्रिफ्टवुड की कला में भी निपुण हैं। उनकी ड्रिफ्टवुड की कई प्रदर्शनियाँ भारतवर्ष के विभिन्न स्थानों पर प्रदर्शित हुई हैं। अपनी रचनात्मक और साहित्यिक सक्रियता के कारण उन्होंने अपने छोटे से क़स्बे नाहन को अनेकशः गौरव के अवसर दिए हैं। उनके पूर्व-प्रकाशित व्यंग्यों में से चयनित व्यंग्यों का संकलन पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ है। पत्र-पत्रिकाओं में वे संतोष उत्सुक के नाम से लिखते रहे हैं। उनके व्यंग्य लेखन में सामाजिक-सांस्कृतिक ह्रास, दिखावा व प्रदर्शन-प्रियता, भ्रष्टाचरण तथा राजनीतिक विद्रूपताओं को बहुत बारीक़ी से उठाया गया है। 

राजनीति के यथार्थ को बिना लाग-लपेट के व्यंग्यकार इस प्रकार अभिव्यक्त करता है—“देखो हमारे देश में कितने मत समुदाय, मज़हब और विश्वास हैं। आप थोड़ा सा प्रयास कर किसी भी मनपसंद ख़ेमे में घुस सकते हो। वहाँ लीडर, प्रचारक, पथभ्रष्टक, ख़ेमेबाज़ व बढ़िया चालबाज़ बन सकते हो। धर्म के दायरे में रहते हुए विशालकाय सुरक्षित श्रद्धा केंद्र बनाकर मारकाट, तोड़फोड़ की राजनीति का बिज़नेस कर सकते हो। जितना और जिस रास्ते से चाहो, धन डकार सकते हो।” (पृ. 17) और जब वातावरण इस तरह से आपाधापी का हो, राजनीति बिज़नेस बन जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि आम आदमी स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को छुट्टी के अवसर से ज़्यादा कुछ न समझे। व्यंग्यकार यह देख-देख परेशान है कि—“वोटर ने मान लिया लगता है कि स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस की मानिंद वोट दिवस भी एक पेड होली-डे है। उसे किसी ऐसे व्यक्ति के लिए क्यों नष्ट करना, जो लाखों ख़र्च कर करोड़ों बनाना चाहता है।” (पृ. 27-28) और ये उदासीनता लोकतंत्र और देश के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं। स्पष्ट है व्यंग्यकार इस पीड़ा को बहुत शिद्दत के साथ महसूस कर रहा है। व्यंग्यकार इसकी वजह को भी पहचान रहा है। हम यह भी कहते हैं कि पश्चिम ने हमें लोकतंत्र दिया किन्तु पश्चिम ने हमें वैयक्तिक स्वातंत्र्य के नाम पर गलाकाट प्रतियोगिता, स्वार्थ, लोभ, धन-संग्रह की अंधी लिप्सा भी परोसी है जिससे लोकतंत्र राजनीतिज्ञों और धनिकों के हाथ गिरवी हो गया है। व्यंग्यकार के शब्दों में—“सठिया गया लोकतंत्र पैसे की फ़ैक्ट्री में मज़दूरी कर रहा है। देश में क्षेत्रवाद जातिवाद धर्म के ठेकेदार अपना अपना हिस्सा माँग रहे हैं।” (पृ. 55) और यह भी कि—“राष्ट्र किसी मल्टी नेशनल वाले का बिगड़ैल बेटा लगने लगा है और हम अभी भी दिल रखने के लिए गाते रहते हैं ‘सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तां हमारा’।” (पृ. 55) लबो-लुआब यही कि भ्रष्ट आचरण हमारे रग-रग में समा गया है। “पक्का हिन्दुस्तानी” नामक व्यंग्य में नारायण दास और हिन्दुस्तानी के संवाद का एक अंश देखिए—“नारायण दास उठने लगे तो हिन्दुस्तानी ने यह कहते हुए रोक लिया कि हम एनजीओ बनाकर देश खा सकते हैं। पटवारी को पटाकर ज़मीन डकार सकते हैं। परीक्षा के पर्चे लीक कराकर डॉक्टर बन सकते हैं। भाषा एवं प्रान्त के नाम पर देश को बाँट सकते हैं। भजन गाकर अपनी-अपनी कोठियाँ खड़ी कर सकते हैं। कफ़न में भी कमीशन चट कर सकते हैं।” (पृ. 18) इस तरह व्यंग्यकार की हर हिन्दुस्तानी के कृत्यों-कुकृत्यों, स्वार्थों-षड्यंत्रों, कुत्सित वृतियों और चालों पर पैनी नज़र है। 

पर्यावरण जागरूकता कार्यक्रम के बहाने व्यंग्यकार सत्तासीन अथवा राजनीतिक लोगों के दोगलेपन को उघाड़ कर रख देता है—“पॉलीथिन विरोधी सभा में प्लास्टिक का डंका” नामक व्यंग्य में सीधे-सादे विवरण से वे अपनी बात स्पष्ट रूप में रख देते हैं—“बैनर पॉलीक्लॉथ का लगा था। मेज़पोश पर पॉलीथिन बिछी थी। स्वागत बुके नरम पॉलीथिन व चमकी में लिपटे थे। सामने पड़े उपहार चमकीले रंगीन पॉली पेपर में पैक्ड थे। जहाँ-जहाँ तक नज़रें जातीं, पॉलीथिन ही पॉलीथिन नज़र आती।” (पृ. 100) और फिर सभा का समापन देखिए किस तरह होता है—“राजनीतिक विरोधियों ने मौक़े का सही फ़ायदा उठाते हुए, एक-दूसरे की पार्टियों पर लांछन लगाए। चलते हुए पर्यावरण चिंतकों ने हाथों में प्लास्टिक की पानी की बोतलें उठाए पहाड़ पर घुमक्कड़ी का आनंद लिया और पर्यावरण सम्मलेन को टाटा किया।” (पृ. 101) किन्तु मुद्दा पर्यावरण नहीं है बल्कि वह कुत्सित वृति है जिस का लोकतंत्र और स्वतंत्रता के नाम पर गाहे-बगाहे स्वतंत्रता के बाद खुल कर संरक्षण और पोषण हुआ है। 

कहना न होगा कि गणतंत्र दिवस जैसे अवसर भी प्रदर्शन-प्रियता और मानसिक दिवालिएपन के शिकार हो रहे हैं। “श्रद्धांजलि का आविष्कार” नामक व्यंग्य में जब वाचक की पत्नी शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रम हेतु उससे मंत्रणा करती हुई पूछती है—“स्कूल में फ़ैशन शो करा दें तो कैसा रहेगा? क्या हम इंडियन कल्चर को प्रोमोट कर रहे फ़ैशन के माध्यम से श्रद्धांजलि नहीं दे सकते? हमारे शहर में सांस्कृतिक आयोजन नहीं होते। हम एक रियलिटी शो करा दें और हर एपिसोड के समापन पर श्रद्धांजलि देते रहें तो कैसा रहेगा? इस बहाने लोग भी ज़्यादा आएँगे, पैसा भी ख़ुश होकर देंगे।” (पृ. 14) तो समाज की मानसिकता का खोखलापन सामने आ जाता है। भौतिक विकास की अंधी दौड़ में हम किस ओर अग्रसर हैं इसकी बानगी देखिये—“सावन घिर-घिर आये, सावन आकर बरसना चाहता है, मगर आदमी द्वारा रची परिस्थितियों के कारण बेबस हो लौट जाता है। चुनरिया उड़ती, पनघट पर पनिहारिन गगरी भरने, मधुर-मधुर, तानों में बंसी कोई बजाए जैसे दृश्यों पर आधुनिकता का ऑल वैदर पेंट कर मिटा दिया है। क़दम-क़दम पर है मिल जाती ऐसी प्रेम कहानी की जगह हर क़दम पर जातप्रेम कहानी, स्वार्थप्रेम कहानी, नोटप्रेम कहानी जैसी कहानियाँ मिलने लगी हैं।” (पृ. 29) 

हमारी प्राथमिकताएँ किस क़द्र बदल गई हैं? राष्ट्रीयता की हमारी नई अवधारणा क्या है? हमारी समझ को किस क़द्र लकवा मार गया है इसकी अभिव्यक्ति “राष्ट्रीय पशु कौन?” नामक व्यंग्य में बख़ूबी हुई है—“नो कन्फ्यूजन, ओपनिंग लाइन (राष्ट्रगीत की) होनी चाहिए चक दे इंडिया। दरअसल, आम लोगों का लोकतंत्र धनिकों के यहाँ जॉब कर रहा है। क्षेत्र जाति और धर्म के ठेकेदार अपना हिस्सा माँग रहे हैं। गंगा ही नहीं हर नदी को माँ कहने वाले, हर नदी के साथ ज़हरीला बर्ताव कर रहे हैं। सब अपनी जय बोल रहे हैं, देश की किसे परवाह है? पैसा कमाना ही धर्म और भक्ति है, चाहे क्रिकेट खेल कर कमाओ या नंगा नाच कर।” (पृ. 96) व्यंग्यकार का प्रहार कई जगह मर्मभेदी हो जाता है—“सिर्फ खेल नहीं, राष्ट्रीय पशु भी बदलना चाहिए। चीते और बाघ धीरे-धीरे ख़त्म हो रहे हैं, ऐसे में नया राष्ट्रीय पशु हम किसी नेता को बना सकते हैं, जिसने हमारी संस्कृति को बदरंग करने की सबसे ईमानदार कोशिश की है।” (वही) 

भाव यही कि हम अपने मौलिक स्वभाव और संस्कारों से दूर पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध और मानसिक दिवालिएपन के वशीभूत होकर एक जाति अथवा संस्कृति के रूप में मरणशील अवस्था की ओर बढ़ रहे हैं— “हमारे देश में अच्छा करना व समझना ज़रूरी नहीं रह गया है। सुरीली बाँसुरी की जगह, फटे बाँस ने ले ली है। अमेरिकी गीता पढ़ रहे हैं और हम ईंट, ड्रिंक डांस ऐंड बी मैरी स्टाइल में सड़ रहे हैं, मगर मान नहीं रहे। हमारे लिए चाय-समोसे गीता पढ़ने से ज़्यादा स्वादानन्द दायक हैं। सफ़दर हाशमी की जगह इमरान ने ले ली है। हिंदुस्तान इंडिया होकर अप्राकृतिक कानफाड़ू म्यूज़िक से बहरा हुआ जा रहा है।” (पृ. 45) स्वार्थ और अन्धविश्वास का घाल-मेल किस प्रकार हमारी चेतना को हर लेता है, व्यंग्यकार ने अनेकशः इस ओर इंगित किया है। “घोड़े की नाल” और “गृहचाल का है ये हाल” ऐसे ही निबंध हैं। बानगी देखिए—“इस बार आसान इलाज बताया गया, काले घोड़े की नाल, जो शनिवार या मंगलवार के दिन घोड़े के अगले दाहिने पैर से स्वयं गिर गई हो, उसे शनिवार को शुद्धि करवाकर दुकान के प्रवेश द्वार पर वी आकृति में लगाएँ।” (पृ. 39) किन्तु व्यंग्यकार ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित कर देते हैं जिससे ‘गोलक राम की पत्नी’ अर्थात्‌ आम आदमी को भी समझ आ जाता है कि असली नाल तो समझदारी और मेहनत है। इस प्रकार लेखक व्यंग्य को मारक हथियार ही नहीं बल्कि दिशाबोधक यंत्र के रूप में भी प्रयुक्त करते हैं। 

अपने एक व्यंग्य संग्रह की भूमिका में व्यंग्यकार अशोक गौतम ने कहा है— “आज हम सब हाथियों के दाँत अपने चेहरे पर लगाए हँसते हुए जी रहे हैं। सभी के पास सड़क से लेकर संसद तक ऐसे ही दाँत हैं। लोहा सोने से अधिक चमक रहा है। सब शुद्धता और प्रबुद्धता से परे चले गए हैं। अवसर मिलते ही हर कोई लोहे पर सोने का पानी चढ़ा गन्दी नालियों तक पर दुकान सजाए बैठने को लालायित है।” और इस भयावह परिदृश्य में प्रभात कुमार जब इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि “अब जब शरीर प्रोडक्ट हो चुका है फिर नंगा क्या और छुपा हुआ क्या! जब देश को लूटना, बेचना, पिता, भाई को मारना, अपनी शिष्या का रेप करना, नैतिक, सामाजिक, राष्ट्रीय ज़िम्मेवारियों का डिमांड में न रहना ग़लत नहीं है तो टी.वी., फ़िल्म या मंच पर शरीर दिखाकर पैसा कमाना क्यों बुरा है। जिसके पास जो है वही तो सप्लाई करेगा और डिमांड भी तो यही है। पूरा फ़ॉर्मूला परफैक्टली अर्थशास्त्र का है।” (पृ. 66) तो संवेदनशील लोगों की पीड़ा को समझा जा सकता है। 

अशोक गौतम का मानना है कि—“व्यंग्य समाज को सही, स्वस्थ समाज के रूप में देखने का हिमायती रहा है। कोई व्यंग्य मात्र रचना के ऊपर व्यंग्य लिख देने भर से व्यंग्य नहीं हो जाता, वह व्यंग्य तभी होता है जब समाज की रगों में बहते वैचारिक रक्त की जाँच करने के बाद उसके शुद्धिकरण की शुरूआत करता है।” प्रभात कुमार की कोशिश भी यही है। इस प्रकार प्रभात कुमार का यह व्यंग्य-संग्रह भारत के राजनीतिक, सामजिक और सांस्कृतिक ह्रास पर चिंता और चिंतन का दस्तावेज़ है। इस व्यंग्य-यात्रा में व्यंग्यकार के साथ चलकर हम अपने संकल्पों को नई दिशा दे सकते हैं। 

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