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चिकन शिकन ते हिंदी सिंदी 

समीक्षित पुस्तक: चिकन शिकन ते हिंदी सिंदी (व्यंग्य संकलन)
लेखक: डॉ. अशोक गौतम
प्रकाशक: देशभारती प्रकाशन, सी-585, गली न. 7, अशोक नगर, निकट रेलवे फाटक, दिल्ली-110093

अगर आप व्यंग्य पढ़ने के आदी हैं या आपको व्यंग्य पढ़ने की लत लग गयी है तो हो सकता है कि इस लत का कारण डॉ. अशोक गौतम हों। वर्षों से हिन्दी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में नियमित रूप से इनके व्यंग्य छप रहे हैं। आज इनके लगभग 50 व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। डॉ. अशोक गौतम को व्यंग्य लिखने की धुन ऐसे ही है, और इसे अतिश्योक्ति न समझा जाए, जैसे मीरा को घुँघरू बाँध नाचने की होती थी। क्योंकि उनकी वाणी में सहज रूप में ही हास्य और व्यंग्य समाहित हैं। ऐसी स्वाभाविकता अभ्यास से नहीं, सहज प्रतिभा से ही आती है, अभ्यास से भाव को रूपाकार देने में सहयोग अवश्य मिलता है। इनके साथ बैठ कर बात करते हुए या तो आप हँसते रहेंगे, ये आप को हँसाते रहेंगे या ये किसी सामायिक घटना को लेकर व्यवस्थागत ख़ामी की ओर आपका ध्यान खींचते रहेंगे। इन्हें हर समय ऐसी चिनगारियाँ दृष्टिगोचर हो ही जाती हैं जिससे यह एकांत में बैठते ही व्यंग्य की लौ जला देते हैं और अगले ही रोज़ जलती अंगीठी को आपकी ओर सरका देते है फिर आप अंगीठी को सेंको, तापो, आनन्दित हो जाओ या फिर जल-भुन जाओ। 

“चिकन शिकन ते हिंदी सिंदी” व्यंग्य संग्रह प्रकाशन के काफ़ी समय बाद हाथ में आया। व्यंग्य संग्रह का शीर्षक सबसे पहले आपको आकर्षित करता है। अशोक गौतम के व्यंग्य उनके शीर्षक से पहचाने जाते हैं। ‘चिकन शिकन ते हिन्दी सिंदी’ शीर्षक से ही लग रहा है कि भारतवर्ष में संविधान निर्माताओं ने तमाम विरोध के बाद भी हिन्दी को राजभाषा तो बना दिया, क्योंकि कोई दूसरा विकल्प भी न था। परिस्थितिवश अंग्रेज़ी में कार्य करने की अनुमति भी समझ में आती है किन्तु अंग्रेज़ी को स्वतंत्र भारत के शासक-प्रशासक ऐसा दर्जा दे देंगे कि अंग्रेज़ी के बिना भारतीय लोग साँस ही नहीं ले पाएँगे, ऐसा सोचा न था। और फिर सोने पर सुहागा यह कि हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए सरकारों द्वारा प्रायोजित हर वर्ष होने वाले समारोह पखवाड़े भर चलते हैं जिसमें औपचारिकता, ढिठाई, जुगाली और भटकन का ऐसा संयोजन होता है कि विद्वज्जन और सामान्य नागरिक ठगा सा महसूस करते हैं। हिंदी दिवस के एक कार्यक्रम की ओर ध्यान आकृष्ट करवाते अशोक गौतम कहते हैं—“साल भर अंग्रेज़ी के गुणगान करने वाले अंग्रेज़ी की रूफ़ से उत्तर हिंदी की दरी पर बैठ कवितयाने लगे थे। वे हिन्दी के पखवाड़े में हिन्दी मौसी से अपनी इतनी सेवा करवा रहे थे जितनी हिन्दी वाले अपनी माँ से नहीं करवा रहे थे।” यह भी कि—“अंग्रेज़ी वाले स्वतंत्रता के समय भी छत पर बैठे थे स्वतंत्रता के 73 वर्ष बाद भी छत पर बैठे हैं और विडंबना यह कि वर्ष में एक बार हिन्दी पखवाड़ा मनाने की ज़िम्मेवारी भी उन्हीं के कंधे पर होती है। वर्ष में एक बार हिन्दी मौसी के घर जाकर मौज-मस्ती करने का चिकन-शिकन खाने का अवसर हाथ से क्यों जाने दिया जाए।” जाने दिया भी नहीं जा सकता क्योंकि दिखावा तो ज़रूरी है, औपचारिकता तो ज़रूरी है, आदेश की अनुपालना भी करनी है और आवंटित बजट भी ठिकाने लगाना है। 

विचारणीय है कि जब विश्वभर के तमाम विद्वान् और शिक्षाविद् एक स्वर में स्वीकार करते हैं कि आरंभिक शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए फिर भी पहली कक्षा से अंग्रेज़ी लागू करने के फ़ैसले को राजनीतिज्ञ और प्रशासक शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी मानकर अपनी पीठ थपथपाते हैं तो क्यों न माना जाए कि हम 1947 से पहले अँग्रेज़ों के ग़ुलाम थे और अब अंग्रेज़ी के! व्यंजना यह भी कि समाज के उच्च-मध्यम वर्ग के लिए तो हिंदी कदाचित् पिछड़ेपन की निशानी थी धीरे-धीरे हमारी व्यवस्था निम्न-मध्यम वर्ग को यह बताने में कामयाब हो गई है कि हिंदी-सिंदी तो बच्चा बोल ही लेगा किन्तु ज़िन्दगी की वैतरणी तो अंग्रेज़ी की नाव पर सवार हो ही पार होगी। 

“हिंदी मौसी मोरिया” नामक व्यंग्य में हिंदी पखवाड़े के अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों में हिन्दी की स्थिति पर घड़याली आँसू बहाने वाली रुदालियों के व्याज से व्यंग्यकार ने प्रभावी रूपक गढ़ा है। हिन्दी पखवाड़े के समापन अवसर पर रुदाली को आयोजक की समझाइश देखिए—“देखो हिन्दी की रुदाली . . . मुझे घर में बच्चों को अंग्रेज़ी भी पढ़ानी है। देखती नहीं इन पंद्रह दिनों में ही मेरी अंग्रेज़ी की टोन कितनी बदल गई है? . . .  पता है घर में कान्वेंट जाने वाले बेटे के सामने हिन्दी बोलने पर मुझे गँवार बीवी से कितनी गलियाँ सुननी पड़ती हैं।” और समापन देखिए—“इससे पहले की वे हिन्दी की अर्थी को अंग्रेज़ी के समुद्र में विसर्जित करते, हिंदी ख़ुद ही आयोजकों, रुदालियों के कंधे से उतरी और अंग्रेज़ी समुद्र में हँसते हुए विसर्जित हो गई।” 

क्या हमने स्वीकार कर लिया है कि भविष्य तो अंग्रेज़ी का ही है? दूर-दराज़ के क्षेत्रों में अंग्रेज़ी माध्यम के तीसरे दर्जे के निजी स्कूलों को खोलने की बहुत सरलता से स्वीकृति, सरकारी स्कूलों में अंग्रेज़ी को प्रथम कक्षा से पढ़ाने की व्यवस्था, स्वतंत्रता के उपरान्त इने-गिने कान्वेंट स्कूलों को राष्ट्रीय शिक्षा के अनुरूप ढालने की अपेक्षा उनकी निर्बाध व्याप्ति और अब उन्हीं का अनुकरण हमारी शिक्षा नीति की विफलता ही है। अँगरेज़ी की अंतरराष्ट्रीय मृगमरीचिका के समक्ष राष्ट्रीय स्वाभिमान और आत्मविश्वास के आत्मसमर्पण के बावजूद हिन्दी दिवस मनाने की औपचारिकताएँ तो कुछ ऐसी ही कहानी कहती है। अशोक गौतम इसी व्यंग्य में इसी यथार्थ की ओर संकेत करते हैं जब एक अधिकारी हिंदी दिवस पर आयोजित होने वाली गोष्ठी के लिए इसलिए भागमभाग में है कि बजट तो ख़र्च करना ही पड़ेगा— “यार! फिर वही हिंदी सिंदी पखवाड़ा। सेंटर से बजट आया है फूँकने के लिए हिंदी के नाम पर। तुम ही कहो, अब बजट फूँके बिना कैसे रहें? बजट फूँका नहीं तो साहब बुरा मान जाते हैं। ऊपर से एक्सप्लेनेशन अलग।” अर्थात् सारे आयोजन इसलिए नहीं कि हिंदी की बेहतरी के लिए कुछ और अधिक मौलिक प्रयास किए जाएँ बल्कि इसलिए कि औपचारिकता पूरी करनी है और बजट ठिकाने लगाना है। 

‘हिंदी का होलटाइमर और पेट सफा’ नामक व्यंग्य में सरकारी संरक्षण में काव्य-गोष्ठियों और साहित्यिक कार्यक्रमों की औपचारिकताओं पर गहरा व्यंग्य किया गया है—“विभाग को हिंदी की दुर्दशा पर रोने को बजट आ गया है तो वे बिन नहाए अपनी रोनी सूरत ले वहाँ पहुँच वहाँ से राजाश्रित कवि होने के चलते हिंदी की दशा पर सहर्ष पाँच सात सौ झाड़ हँसते-हँसते वहाँ रो आते हैं। हँसते-हँसते रोने के बाद मिले पारिश्रमिक से दारू पीते हैं। हिंदी को अंग्रेज़ी में चार गलियाँ ठोंकते हैं और अगले कल फिर कहीं हिंदी की दुर्दशा पर रोते-रोते उनके उन्नयन हेतु सरकारी ख़र्चे पर सिंदबादी यात्राओं पर निकल जाते हैं ऑफ़िस के कामों को लात मार।” ऐसी तुच्छ मानसिकता से भला हिंदी का भला कैसे होगा? 

राजनीति और भ्रष्टाचार तो व्यंग्य विधा के लिए अपने आप में खाद-पानी है। इस संग्रह में भी राजनीति और भ्रष्टाचार का पर्दाफ़ाश करते अनेक व्यंग्य हैं। ‘जुगाड़ की सरकार’, ‘सूचनाएँ लाएँ, पन्द्रह लाख कमाएँ’, ‘सरकार श्री से अपील’, ‘जो सुख सरकारी नौकरी द्वारे . . .” आदि ऐसे ही व्यंग्य हैं। सरकार किसी भी दल की बने कुछ लोग हमेशा सत्ता के गलियारों में ही मिलते हैं क्योंकि वे चिरंतन राजनीतिक प्रतिभा लेकर पैदा होते हैं। ‘जुगाड़ की सरकार’ व्यंग्य में उनकी प्रतिभा को प्रणाम करते हुए गौतम जी कहते हैं—“उनके लिए तो सेक्युलर भी अपने नॉन सेक्युलर भी अपने। अंतर केवल पार्टी का। पार्टी बदलते ही सेक्युलर नॉन सेक्युलर हो जाता है तो नॉन सेक्युलर सेक्युलर, जल में कुम्भ, कुम्भ में जल की तरह! फ़र्क़ बस इतना कि नॉन सेक्युलर खुलकर मूरत के आस पास आ जाते हैं तो सेक्युलर अपना मुँह ढककर मूर्तियों के चरणों में लोटते पोटते हैं सत्ता में आने के लिए।” 

‘सूचनाएँ लाएँ, पन्द्रह लाख कमाएँ’ व्यंग्य में नेता जी की गुम हुई भैस को ढूँढ़ने के लिए सम्पूर्ण पुलिस विभाग सड़कों, गलियों, पगडंडियों पर उतर आया है। व्यंग्य की आरंभिक पंक्तियों में निहित व्यंग्य कम शब्दों में सब कुछ कह देता है—“नेता जी का चरित्र गुम हुआ वे ख़ुश हुए। नेता जी की नैतिकता गुम, वे अतिप्रसन्न। इनको ढूँढ़ने के लिए न उन्होंने पुलिस में कोई रपट लिखवाई, न ही सीबीआई से गुहार लगाई, उन्हें पता था कि समाज की सेवा के लिए कटिबद्ध होने से पहले ज़रूरी है आदमी के भीतर से इन दोनों अवगुणों का गुम हो जाना। जब तक ये आदमी के भीतर से गुम न हो जाएँ तब तक उनके भीतर का लोकप्रिय नेता दो क़दम के बाद ही हाँफने लग जाता है। समाज सेवा में सबसे बड़ी बाधा खड़ी करते हैं तो बस चरित्र और नैतिकता ही करते हैं।” संकेत यही कि हमने लोकतन्त्र तो अपनाया है किन्तु लोकतंत्र में हमारी प्राथमिकताओं में लोक ग़ायब है। मौजूद है तो व्यक्ति जो येन केन प्रकारेण जाति, मज़हब या किसी और पहचान के आधार पर एक गिरोह बना कर उसकी अगुआई करते हुए सम्पूर्ण तंत्र का दोहन करते हुए अपना उल्लू सीधा करता है। 

‘राम बेचता रावण’ नामक एक व्यंग्य में बिज़नेस में व्यंग्यकार कोई व्यापार का सूत्र नहीं समझा रहा बल्कि प्रत्येक व्यक्ति के दोगलेपन को सामने ला रहा है जो अपने लाभ और स्वार्थ-सिद्धि के लिए कुछ भी कर सकता है। और जब रावण कहता है कि–“मैं बहरूपिया नहीं। असली का रावण हूँ। जिसे तुमने हर गली मुहल्ले में जलाकर अजर अमर कर दिया है। क्या है न कि कई बार जब हम बुराई को बार बार याद करते हैं तो वह मरने की बजाय और बढ़ जाती है शहर के कचरे की तरह . . .” तो कहने की आवश्यकता नहीं कि रावण का दहन करते-करते, राम के बहाने रावण को याद करते-करते वह हम सबके रक्त और रूह में समा गया है क्योंकि राम बन पाने की परीक्षा तो बहुत कठिन है। इस व्यंग्य संग्रह में आम-ओ-ख़ास सभी को आईना दिखाते अनेक व्यंग्य हम सबको झकझोरने का प्रयास करते हैं, जागेंगे तो वही जिनका जीव मृतप्रायः नहीं हो गया है। इस संग्रह के सभी व्यंग्य भाषा और शिल्प के स्तर पर भी एक नयी ताज़गी लिए हुए है। 

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