ऐसी हो
काव्य साहित्य | कविता अभिषेक देवांगन1 Sep 2019
निशाओं को मिलती है चाँदनी
सूर्य तृप्त पाकर किरणें
जैसे सुर, संगीत का हो आलिंगन
नृत्य को ख़ुद मिलते भोले
वर अर्जित वो कर मैं पूरी
तपस्या लगे अधूरी हो
अभिलाषा ये मन की मेरी, साथ संगनी ऐसी हो
स्पर्श मात्र से महका दे, मेरी जीवन कस्तूरी हो
काश कोई मेरी अपनी, कोई मेरी अपनी ऐसी हो।
सीरत से वो सीता हो,
सूरत में भी कोई कम न वो
सुनना चाहो वो लगती कैसी
तो सुन वो मेरी कैसी हो
यौवन का हो फूल खिला
ख़ुशबू जिसमे माटी की हो
हो अंग अंग वो अमृत प्याला
बोल शब्द सुर कोकिल हो
देख हँसी चपला भी फीकी
केश घने कोई जंगल
देख लगे कोई उन्मद हिरनी
चाल ढाल कुछ ऐसी हो
होठ भी जैसे मर्म पंखुड़ी
बूंद शहद की शर्मा दे
ख़ुश हो जब बाँहें फैलाये
नाचे कोई मोरनी हो
मात्र कल्पना है ये मेरी
जानूँ न ये पूरी हो
पर काश कोई मेरी अपनी
कोई मेरी अपनी ऐसी हो।
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