अम्मा! दादू बूढ़ा है
काव्य साहित्य | कविता सचिन कमलवंशी25 Aug 2016
अम्मा! दादू बूढ़ा है,
कचरा, करकट कूड़ा है,
क्यों न इसे फेंक दें, तपती धूप में सेंक दें!
तुम ही तो कहती हो ये खाँसता है,
चलते चलते हाँफता है,
कितना भी खिलाओ अच्छा इसको,
फिर भी हमेशा माँगता है…
न कहीं जाता है, न कुछ करता है,
खटिया पर पड़े पड़े सड़ता है,
अंधा है, बहरा है, चाल तो देखो लंगड़ा है,
ज़ोर नहीं रत्ती भर फिर भी कितना लड़ता है।
इसे देख बापू झल्लाते हैं,
सामने ही दाँत किटकिटाते हैं,
कहते हैं मर क्यों नहीं जाता,
कब से ज़िंदा है, जग से तर क्यों नहीं जाता।
अब क्या बचा है जिसके लिए ज़िंदा है,
इसकी वजह से जीवन शर्मिंदा है,
कहते हैं, जायदाद में कुछ नहीं इसके पास,
जो है, उसपे इसका शिकंजा है।
अम्मा! दादू बूढ़ा है,
कचरा करकट कूड़ा है,
क्यों न इसे जला दें, या फिर ज़हर पिला दें!
अम्मा! एक बात कहूँ, मारोगी तो नहीं!
दादू जैसा बंद कमरे में डालोगी तो नहीं!
अम्मा! दादू अच्छा है,
मेरी तरह बच्चा है,
अम्मा! दादू रोता है,
हम सबके बावजूद अकेला होता है,
जानती हो, वह सुनता भी है,
मन ही मन कुछ बुनता भी है।
बापू के तानों पर सहम जाता है,
रूखा सूखा जो दिया सब खाता है,
वह चल नहीं पाता फिर भी गाँव जाता है,
सोना हो या सूखे बेर, हमारे लिए ही लाता है।
दादू अब भी बापू को चाहता है,
तुम्हें बेटी उन्हें बेटा मानता है,
भले तुम उसे बुरा कहो, गाली दो,
बापू परिवार जानता है, दुआ जानता है।
अम्मा! कुछ दिन बाद दादू मर जाएगा,
तो मुझे कहानी कौन सुनाएगा?
चोट लगेगी तो कौन चुप कराएगा?
तम्बाखू के चार पैसे मेरे लिए धोती में कौन छुपाएगा,
मेरी शरारत पर कौन हँसेगा?
तू मेरे जैसा है, मुझे कौन बताएगा?
मुझे खिलौना नहीं चाहिए, मिठाई नहीं चाहिए,
मुझे दादू चाहिए, मैं दादू कहाँ से लाऊँगा?
अम्मा! दादू बूढ़ा है,
कचरा करकट कूड़ा है,
बेकार सही लाचार सही,
हम बिन वह अधूरा है,
क्यों न उसे प्यार दें! अपने पाप उतार दें!
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