अपाहिज
काव्य साहित्य | कविता संजीव कुमार बब्बर27 Feb 2014
यहाँ हर मानव अपाहिज है
मैं भी अपाहिज हूँ
तुम भी।
यहाँ कोई गूँगा कोई बहरा
और कोई अंधा है।
कल शान्ति की इज्ज़त लुटी
शर्मा जी ने आँखें बंद कर लीं
वर्मा जी को कुछ सुनाई न दिया
और मैं कुछ बोल न सका।
जब प्रेम का गला दबाया गया था
तब भी ऐसा ही हुआ था।
यही नहीं
जब ईमान सरेआम लूटा गया था
तब भी हम कुछ न कर सके थे
क्यों कि अब हम
अपाहिज बन चुके हैं
ना अब हमें
किसी की चीखें सुनाई देती हैं
न किसी के आँसू दिखाई देते हैं?
और
न हम अन्याय के सामने
कुछ बोल सकते हैं।
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