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अपूर्ण प्रेमकथा

हरित पर्णों पर 
ठहरती नहीं 
ये श्वेतवर्णी बूँदें
या ये उन्मादी पत्ते 
ठहरने ही नहीं देते
उन अनुरक्त बूँदों को
इतना भी क्या 
गुमान, अभिमान
इतनी दूर से 
छालों भरे पाँवों से
नापती आईं 
ये मानिनी बूँदें
सागर की गहराई से
आकाश तक उठती
ऊपर भार वहन
करतीं हुईं बूँदें
अनंत आकाश में
वाष्पाच्छादित
ऊमस, ताप
ऊष्मा, दाघ से दग्ध
तपती-जलती बूँदें
हरीतिमा पर रीझतीं
मचलतीं, गिरतीं बूँदें . . . 
अगर रूठ जायें
तो मुरझा जाएँगे 
नित्य नूतन पर्ण
निस्तेज हो जाएँगे
विकल, विह्वल भी
फिर . . . 
मनुहार भी
इतना सरल, सहज
नहीं होता 
प्रकृति कितने ही
रंग-रूप, ताने-बाने
बुनती है निर्विकार
निरंतर, निःशब्द
हर क्षण अंकित
करती है दृश्य में
एक अपूर्ण प्रेमकथा
न जाने कौन सा 
अदृश्य अनुराग है
जो इन बूँदों को
स्निग्ध बँध से 
बँधने के लिए
कर देती है आतुर . . . 

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