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असहमति के स्वरों का प्रतीक है: मूर्खता के महर्षि

पुस्तक: मूर्खता के महर्षि
लेखक: रामकिशोर उपाध्याय 
विधा: व्यंग्य 
प्रकाशक: किताबगंज प्रकाशन, गंगापुर सिटी
पृष्ठ: 136 मूल्य: 200 रुपए 

रामकिशोर उपाध्याय साहित्य जगत में एक जाना-पहचाना नाम है। कुछ गुदगुदाते, रिझाते, सोचने पर मजबूर करते व्यंग्यों में समाज और उसके सभी क्षेत्रों में असहमति के स्वर उठाने वाले रामकिशोर उपाध्याय के जादुई शब्दों से सजा एक व्यंग्य संग्रह ‘मूर्खता के महर्षि’ इन दिनों प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में शामिल बत्तीस व्यंग्यों को पढ़ते समय हम यह भूल जाते हैं कि हमारी बत्तीसी अंदर है या बाहर, ऊपर है कि नीचे, खुली है या दबी हुई। लेखक का यह प्रथम व्यंग्य संग्रह है और वह स्वयं इसे एक दस्तक मानते हैं फिर भी जहाँ-जहाँ यह दस्तक सुनाई देती है, वहाँ-वहाँ हम अपने आसपास के संसार को विद्यमान पाते हैं और यही इस संग्रह की विशेषता है। व्यंग्य संग्रह की भूमिका में व्यंग्य जगत की दुनिया में जाने-माने हस्ताक्षर अनूप श्रीवास्तव लिखते हैं, “व्यंग्य का काम सिर्फ़ मुगदर घुमाना नहीं है। न ही बकौटा काटना है। जो मुस्कुराते हुए विसंगतियों को रेखांकित कर सकता है, वही सहज व्यंग्य का मर्मज्ञ माना जा सकता है।” डॉ. स्नेहलता पाठक ने इस पुस्तक में अपनी टिप्पणी दर्ज करते हुए कहा है कि पूरा संग्रह इस बात का साक्षी है कि आज की सभ्यता के विकास के साथ-साथ तमाम विसंगतियों का बाज़ार भी अपने पाँव पसार चुका है। 

शीर्षक व्यंग्य ‘मूर्खता के महर्षि’ में यह जानकर वास्तव में एक परम आनंद की प्राप्ति होती है कि बॉस की नज़रों में मूर्ख बनकर रहना ही श्रेयस्कर है। इस व्यंग्य को पढ़कर हमारे ज्ञान चक्षु वैसे ही खुल जाते हैं जैसे जंगल में आधी रात को भी दूर तक देख रहे लक्ष्मीवाहन की आँखें। इस व्यंग्य से उन लोगों को सीख लेनी चाहिए जो सर्वदा मालिक की मेहरबानी चाहते हैं। 

‘लोकतन्त्र की सेल’ शीर्षक पढ़कर ही मन मयूर नाच उठता है। ‘सेल’ लगी हो और उसकी गूँज ग्राहकों तक न पहुँचे, ऐसा कभी हुआ है भला। सब कुछ तो बिक रहा है इस लोकतन्त्र में। जैसा ग्राहक वैसी सेल। अब तो ऑनलाइन का ज़माना है और वहाँ भी सेल की कोई न कोई योजना आकर्षण के सुनहरी धागे से बँधी दिखाई देती है। ख़रीद लो क्योंकि यह मौक़ा दोबारा नहीं मिलेगा। लोकतन्त्र बचाने की आढ़ में वोटर और उसका वोट भी सेल की श्रेणी में आ जाता है। 

‘लोकतन्त्र के लोकनंदन’ व्यंग्य के मूल भाव में यह पंक्तियाँ बहुत प्रभावित करती हैं, “कुंडली के अनुसार शिक्षा, न्याय, सुरक्षा और ग़रीबी उन्मूलन जैसी संतानों के जन्म होने से पूर्व ही बार-बार गर्भपात होता रहेगा। योग्य चिकित्सक भी इसका कोई इलाज न ढूँढ़ पायेंगे। वोट देवी सदा के लिए सत्ता पटरानी की चेरी बनकर अपना जीवन यापन करती रहेगी।” स्पष्ट है कि लोकतन्त्र सिर्फ़ नाम का है। 

इसी तरह ‘लोकतन्त्र का नंदनवन’ में चुनावी जुमलों का जाल बुनकर वोटर से वोट ऐंठने की कार्यविधि की व्याख्या की गई है। मुफ़्त का लालच और झूठे वादों की एक लंबी सूची हम आए दिन चुनावी घोषणापत्रों में देखते रहते हैं। सही लोकतन्त्र कब आएगा, न तो यह नेता जानते हैं और न ही कोई विशेषज्ञ। 

‘जनहित की ठकठक’ व्यंग्य में रोचकता भरपूर है लेकिन जिन विसंगतियों का वर्णन है, वह हमारे समाज की ही कहानी है जिसमें हम सब भी शामिल हैं। सच है कि आजकल न जाने कितने लोग दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं लेकिन मुआवजे के चक्कर में उनका अंतिम संस्कार भी सही ढंग से नहीं हो पाता क्योंकि उस पर भी राजनीति होने लगती है। दूसरी तरफ़ सफ़ेद खादी के वस्त्रों को धारण करने वाले की मृत्यु को भी भुनाया जाता है और वहाँ भी जनता के पैसे को ऐसे ख़र्च किया जाता है जैसे मृत्यु कोई शोक की घड़ी नहीं बल्कि एक उत्सव का अवसर है। 

‘बेईमानी का मौसम’ में मौसम विभाग की महिमा नहीं है बल्कि सत्ता के पल-पल परिवर्तित होने को मौसम की विभिन्न परिस्थितियों में ढाला गया है। मौसम बेईमान हो या न हो लेकिन उसे इस प्रकार रेखांकित किया जाता है कि बेईमानी ख़ुद ही अपने पैर पसारने लगती है। ‘बहारों का मौसम’, ‘इनकार का मौसम’, ‘तकरार के मौसम’, इज़हार के मौसम’, ‘पुरस्कार के मौसम’, ‘इकरार का मौसम’ में बेईमानी शामिल है। इसे कवितामय और साहित्यिक शब्दों की ज़ोरदार जुगलबंदी से समझाया गया है। 

क्या कोई गाय या गधा कहलाने वाला सरकारी नौकर आपने देखा है। निश्चित रूप से आपका जवाब नहीं होगा क्योंकि नौकरी में पदोन्नति और आय बढ़ाने के तरीक़ों पर थीसिस तक लिखी जाती है लेकिन ‘पानीदार बुद्धिजीवी’ एक ऐसा व्यक्तित्त्व है जिसके पास बुद्धि तो भरपूर है लेकिन वह इधर-उधर के प्रपंचों में न पड़कर सिर्फ़ अपने बॉस को ख़ुश रखता है। पूरी नौकरी करने के बाद वह बहुत ही मासूमियत के साथ सेवानिवृत्त हो जाता है। 

‘एक असाहित्यिक साक्षात्कार’ व्यंग्य में लेखक ने राजा साहब के साक्षात्कार पर शानदार तरीक़े से बात की है। साक्षात्कार वही सफल है जहाँ एक राजनीतिज्ञ से आप राजनीति के बारे में कोई भी सवाल मत पूछिए। इसी तरह से साहित्यकार के सामने ग़ैर साहित्यिक प्रश्नों का ताँता बाँध दीजिए। कोई उनसे मन की बात कहना चाहे तो उसे दुतकारते हैं फिर भी चौबीसों घंटे भाषण के लिए तैयार रहते हैं और जनता सेवक कहलाते हैं। 

‘कबीर मत आप ठगाइये’ व्यंग्य दर्शाता है कि कबीर हमारे समाज के सबसे बड़े व्यंग्यकार हैं। यद्यपि उनकी अनेक साखियाँ हमारे ऊपर से निकल जाती हैं। स्वयंभू साधुओं की हमारे देश में कोई कमी नहीं है। हमारे तमाम राजनेता और अमीर लोग इन्हीं की कुटिया में अपना माथा टेकते हैं। कबीर जैसे ग़रीबों के पास वह कभी नहीं जाते। 

‘फ़िक्रनामा’ इस व्यंग्य संग्रह की एक अद्भुत रचना कही जा सकती है। ‘काम कर या न कर काम का फ़िक्र ज़रूर कर। फ़िक्र कर न कर फ़िक्र का ज़िक्र ज़रूर कर।’ कहा जाता है कि यह देश राम भरोसे या फ़िक्र की नीति पर होने की कारण ही चल रहा है। अब राम तो अवतरित हैं नहीं लेकिन फ़िक्र भगवान की तरह सब जगह मौजूद है। देश में पहले से कुछ निर्धारित नहीं होता और हो भी क्यों, आख़िर देश का विकास करना है तो फिर नयी नीतियों को बनाना आवश्यक है। जैसे ही किसी दुर्घटना की सूचना मिली तो उस क्षेत्र के अफ़सरान, नेतागण और उनके मातहत फ़िक्र का राग अलापने लगते हैं। सबको एहसास दिलाया जाता है कि हमें आपकी फ़िक्र है, अगले दिन समाचार पत्रों और टीवी पर फ़िक्र का ज़िक्र हो जाता है। फिर बजट में उस क्षेत्र को अधिक धन राशि प्रदान करने की फ़िक्र की जाती है। घूम-फिर कर वही पुराने ठेकेदार फ़िक्र मंडली में नए नाम के साथ शामिल कर लिए जाते हैं जिससे उच्चाधिकारियों को उनसे अपने हिस्से मिलने की फ़िक्र नहीं होती। जब तक कार्य योजना नहीं बनेगी तब तक फ़िक्र बनी रहेगी और उसका ज़िक्र भी होता रहेगा और इस बीच फिर नई सरकार बनने की फ़िक्र की जाएगी। 

संग्रह में शामिल ‘मोक्ष का गंगाजल’ में आधुनिक सोच के साथ गंगाजल की महता बरक़रार है तो ‘स्टिंग की जुगाड़’ में टीवी चैनलों को लपेटा गया है। ‘अख़बारों की बिरादरी’ में अख़बार की महिमा का बखान है तो ‘घोटाले की होली’ में कार्यालयों में होने वाले घोटालों की रेलम-पेल है। ‘कहानी का प्रोजेक्ट’ में देश में होने वाले आर्थिक गबन की चर्चा है तो ‘आधार की बदकिस्मती’ में देश के वर्तमान हालातों और विभिन्न राजनीतिक पार्टियों पर करारा व्यंग्य किया गया है। 

‘गई भैंस पानी में’, ‘साहित्यकार आयोग’, ‘मठाधीश तोता’, ‘आओ साँप पाले’, ‘सच के कीटाणु’, ‘कोरोना और प्रेम-पत्र’, ‘तुकांत का अंत’ आदि अन्य व्यंग्य भी आपको समाज की वास्तविकता से परिचय कराने में सक्षम बन पड़े हैं। 

पुस्तक में पात्रों के नाम बहुत ही आकर्षक हैं और उनके कथानक से हम यह जान सकते हैं कि यह व्यंग्य किस संदर्भ में लिखा गया है। व्यंग्यकार ने केवल अपने आस-पास ही नहीं देखा बल्कि अपनी पहुँच को बहुत दूर के क्षेत्रों में और विदेशों तक भी पहुँचाया। उनके व्यंग्य व्यंग्यकार की खोजपूर्ण, दूरदृष्टि और समाज के प्रति उनके दायित्व की प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं। 

संग्रह की विशेषता यह भी है कि प्रत्येक व्यंग्य के साथ व्यंग्यात्मक चित्र भी छपे हैं जो पुस्तक को उत्कृष्ट बनाते हैं। हालाँकि पुस्तक में कुछ स्थानों पर व्याकरण संबंधी अशुद्धियाँ हैं जो इसकी प्रूफ़ रीडिंग पर सवाल उठाती हैं फिर भी व्यंग्यकार रामकिशोर उपाध्याय का यह व्यंग्य संग्रह साहित्य जगत में धूम मचाएगा, ऐसी आशा का मैं पक्षधर हूँ। 

मुकेश पोपली
‘स्वरांगन’, ए-38-डी
करणी नगर, पवनपुरी
बीकानेर-334003
मो: 7073888126
swarangan38@gmail.com

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