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तारीफ़ के क़ाबिल है ‘माफ़ कीजिए श्रीमान!’

पुस्तक: माफ़ कीजिए श्रीमान!
लेखक: सुभाष चंदर
संस्कारण: 2022 
प्रकाशक: भावना प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ संख्या: 136
मूल्य: 195 रुपए

यह ज़रूरी नहीं है कि हर काम को सिर्फ़ समय गुज़ारने के लिए किया जाए और यह तो बिलकुल ज़रूरी नहीं है कि साहित्य सिर्फ़ लिखने के लिए लिखा जाए। व्यंग्य संग्रह “माफ़ कीजिए श्रीमान!” के लिए अपनी बात में व्यंग्यकार सुभाष चंदर द्वारा लिखी गई तहरीर से ऐसी ही बू आती है। इस बू से पाठक को संतोष प्राप्त होता है और वह देर तक इसमें मदमस्त रहता है। इसीलिए “माफ़ कीजिए श्रीमान!” माफ़ी लायक़ नहीं है बल्कि तारीफ़ के लायक़ है। दरअसल कोई भी व्यंग्य शब्दों को तोड़-मरोड़ कर लिख देने से नहीं बनता है। किसी पर मात्र कटाक्ष कर देना भी व्यंग्य नहीं है। व्यंग्य में सबसे ज़रूरी है कि वो घटना, वो चरित्र या वो दृश्य आख़िर हमें क्यों और किस प्रकार प्रभावित करता है जिसके लिए क़लम उठाई जाए। कुल 47 पुस्तकों के रचयिता सुभाष चंदर ने हिंदी व्यंग्य का इतिहास भी लिखा है और उनकी अनेक रचनाओं को आज भी हम विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते समय एक नई ऊर्जा का अनुभव करते हैं क्योंकि उनमें संवेदनाओं को सहज ही देखा जा सकता है और उनसे हम अनायास ही जुड़ते जाते हैं। 

समीक्ष्य पुस्तक “माफ़ कीजिए श्रीमान!” की सबसे महत्त्वपूर्ण रचना का नाम है ‘यासीन कमीना मर गया’। व्यंग्य पढ़ने के बाद मुँह से यही निकलता है, काश! हर घर में यासीन जैसा नौजवान हो। तभी तो इस देश को जो शक्तियाँ धर्म और जाति के भँवर में डूबो देने को तैयार हैं और डूबो रही हैं, उन सबक़ो सबक़ मिल सकेगा। कहा जाता है कि अच्छाई मौन धारण किए रहती है और बुराई शोर मचाती है। यासीन अपना काम मौन रहकर करता था, यहाँ तक कि अपने यारों को भी दबाव देने पर ही जानकारी देता था। फिर भी उसके सारे यार उस पर फ़िदा रहे। हमारे समाज में कुछ ग़लतफ़हमियों ने द्वेष और नफ़रत की भावनाओं को भड़काया है। फिर भी, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए कि हर परिवार में एक यासीन जैसा युवा होगा जो समाज को सही राह दिखाएगा। हमने अपनी मानसिकता के आवरण पर जो संकीर्णता का ठप्पा लगा रखा है, वही हमें यासीन बनने से रोक रहा है। चाहे-अनचाहे हम उन प्रथाओं को हटाना ही नहीं चाहते जो हमारे समाज को आगे बढ़ने से रोकती हैं। यह प्रश्न हमें अपने आप से पूछना ही होगा कि एक तरफ़ हम विकास चाहते हैं और दूसरी ओर किसी दूसरे के विकास को बाधित करना चाहते हैं, आख़िर यह कैसे सम्भव हो सकता है। 

‘हिंदू-मुसलमान वार्ता उर्फ़ तेरी ऐसी की तैसी’ इस पुस्तक का दूसरा बेहतरीन व्यंग्य है। इसे लेखक ने एक चित्र की तरह खींचा है जो दिन-रात हमारी आँखों को दिखाई देता रहता है। धर्मों की वैमनस्यता के कारण हमारा समाज जलते हुए कुएँ की मुँडेर पर बैठा हुआ सुलग रहा है। कभी-कभी इस मलबे से एक भी चिंगारी जब बाहर आ कर गिरती है तब हम इसे बुझाने की जगह आँच को और तेज़ करने लगते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि विधर्मी होने के बावजूद हमारा खाना-पीना, हमारा रहन-सहन, हमारे वार-त्योहार हमें एक दूसरे से मुहब्बत सिखाते हैं। ‘फूट डालो और राज करो’ अँग्रेज़ों की नीति थी। वो तो आग लगाकर चले गए। देश विभाजित हो गया। एक हम हैं जो अभी तक उसी आग में जल रहे हैं और आए दिन झगड़े कर रहे हैं। केवल झगड़े ही नहीं कर रहे बल्कि देश में ही अराजकता फैला रहे हैं और सभ्यता, संस्कृति और भाईचारे को दफना रहे हैं। क्या हमें यह मालूम नहीं है कि हमारे और पाकिस्तान मुल्क के अनेक बाशिंदे भारत से बाहर भी रहते हैं लेकिन वहाँ वे सब मिलकर रहते हैं और एक-दूसरे का साथ देते हैं। समझ में यह नहीं आता कि आख़िर हम अपने देश के प्रति कौन सी वफ़ादारी दिखा रहे हैं? इस व्यंग्य में यही सच छिपा है कि यह देश हमारा है और हम सब एक-दूसरे पर विश्वास कर के ही ख़ुश रह सकते हैं, वरना कुएँ में तो आग लगी हुई है ही, कभी भी कूद जाओ। उस आग को बुझाना हम सबका कर्त्तव्य है। 

“माफ़ कीजिए श्रीमान!” के अंतर्गत ‘कुछ कोरोना कथाएँ’ के अंतर्गत ‘गठरियाँ’, ‘हिसाब’ और ‘रंजिश’ शीर्षक से तीन व्यंग्य लघु-कथाएँ हैं। निश्चित रूप से लेखक प्रशंसा का पात्र हैं जिन्होंने जैसा देखा, फिर जैसा महसूस किया, वैसा ही लिखा। लेखक के भीतर की संवेदनाओं को इन तीनों कथाओं में मुखरित होते देखा जा सकता है। कोरोना अभी ख़त्म नहीं हुआ है फिर भी जो उन दिनों में घटा, उसे कोई नहीं भूल सकता। इन कथाओं को सामने लाने के लिए लेखक का आभार व्यक्त किया जाना चाहिए। कोरोना को लेकर ही ‘चंपक लाल, कविता और कोरोना का इलाज’ शीर्षक से प्रस्तुत व्यंग्य में भी कोरोना मौजूद है। साहित्य से जुड़े हम सब लोग जानते हैं कि उस काल में न जाने कितनी ऑनलाइन गोष्ठियों का बोलबाला रहा। न जाने कितने कवियों ने हमें हमारे मोबाइल के माध्यम से रिकॉर्डिंग भेज दी और हर कोई आयोजक बन बैठा। आपके सामने हज़ारों कविताओं की गोलियाँ परोस दी गई, आप खाएँ या न खाएँ, मरज़ी है आपकी, आख़िर कोरोना से अपने आपको बचाए रखना आपकी ही ज़िम्मेदारी है। इसी क्रम में ‘करोना के साथ मेरे कुछ प्रयोग’ का ज़िक्र करना भी बेहद आवश्यक है। हम लोगों की सलाहों पर ज़िंदा रहना चाहते हैं, अब सलाह के पैसे तो लिए नहीं जाते और ऐसे माहौल में हम कोरोना को दूर भगाना भी चाहते हैं। न जाने व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में कितने ही प्रोफ़ेसर भर्ती हो गए और अच्छे-अच्छे लोगों को भी बीमार कर दिया। 

शीर्षक व्यंग्य ‘माफ़ कीजिए श्रीमान!” वैसे तो होली के रंग में रँगा है लेकिन होली की टैग लाइन ‘बुरा न मानो होली है’ का इसमें बेहद ख़ूबसूरती से प्रयोग किया गया है। बुरा मानना हमारी आदतों में शामिल नहीं है क्योंकि हमें यह सिखाया ही नहीं गया। शायद इसीलिए होली पर यह पंक्ति बोली जाती है कि बुरा मत मानना। दरअसल होली पर वही सबकुछ तो किया जाता है जिसकी मनाही है। करारा तमाचा मारते हुए लेखक ने हमें याद दिलाने की कोशिश की है कि देश के प्रति, समाज के प्रति और अपने परिवार के प्रति भी हमारे कुछ दायित्व हैं। सांप्रदायिकता एक ऐसी आग है जिसमें होलिका के स्थान पर प्रह्लाद जलता है, ऐसी आग से हमें दूर रहना है। विरोध करने के लिए जो ताक़त चाहिए उसे हासिल करना ही होगा वरना हम और हमारा समाज कठपुतलियाँ ही बने रहेंगे। 

‘मेम साहब की ड्रेसिंग टेबिल’ इस संग्रह का सबसे उम्दा और विशुद्ध व्यंग्य है। सरकारी नौकरी में यह आम तौर पर देखा जाता है कि अफ़सर जैसा चाहे करवा सकते हैं। दरअसल हम जो सरकारी नौकर हैं, केवल पदोन्नति या बॉस की प्रशंसा के भूखे हैं। बिना आगा-पीछा सोचे हम वही कर डालते हैं जिससे बॉस ख़ुश रह सके। व्यंग्य में साहब की श्रीमती जी की माँग भी अजीब-ओ-ग़रीब है जो केवल कार्यालय में लगे शीशम के पेड़ की लकड़ी से बनी ड्रेसिंग टेबल चाहती है। यह भी सच है कि ड्रेसिंग टेबल की जगह कुछ भी होता, उसकी सज़ा तो बाबू टाइप लोगों को ही मिलती, उच्चाधिकारी को कभी नहीं मिलती। एक उदाहरण साथ में देता चलूँ कि बैंकों के जो ऋण डूबते हैं उसके लिए अधिकतर शाखा प्रबंधक या फ़ील्ड अधिकारी को ही दोषी ठहरा दिया जाता है जबकि अधिकांश बड़ी राशि के ऋण के लिए स्वीकृति उच्चाधिकारी ही देते हैं। दरअसल किसी भी घोटाले की बात करें तो सभी जानते हैं कि इसमें साहब का हाथ है लेकिन गाज हमेशा निचले स्तर पर काम करने वालों पर ही गिरती है। चापलूसी को फिर भी आप आए दिन बरदाश्त करते रहते हैं मगर घोटाले किस तरह से हो सकते हैं, यह ‘मेम साहब की ड्रेसिंग टेबल’ से जाना जा सकता है। 

इसी तरह का एक और विशुद्ध व्यंग्य ‘कहानी एक करामाती गड्ढे की’ भी है। अजीब-ओ-ग़रीब घटना को लेकर कितने हितधारी एक साथ आ जुड़ते हैं, यह देखकर मन बल्लियों उछलने लगता है। हम यह चाहते ही नहीं हैं कि हमारी कमाई में कोई सेंध लगाए या हमारे नाम को डुबोने का प्रयास करे। एक गड्ढा जो बहुत से लोगों का पालनहार बना हुआ है, बेहद रोचक तरीक़े से उसकी कहानी लेखक द्वारा कही गई है जिसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं। 

व्यंग्य संग्रह में ‘बूढ़ा, बुढ़िया और आशिक़ी’ भी शामिल है लेकिन इस व्यंग्य को पढ़कर आँखों में आँसू भी आ जाते हैं। दरअसल जासूसी को मनोरंजन मानते हुए एक बूढ़े-बुढ़िया की आशिक़ी की पोल खोलने का निर्णय जब लेखक ले लेता है, तब इसका अंत तो पाठक को पहले ही पता चल जाता है। आश्चर्य तब होता है जब व्यंग्य की कथावस्तु और उनसे उपजी संवेदना पाठक के हृदय को बेचैन करने लगती है। हमारे समाज में वृद्धावस्था सबसे बदनाम और डरावनी क्यों मानी जाती है, इस व्यंग्य को पढ़कर हम महसूस कर सकते हैं। यह घटना किसी एक परिवार की नहीं बल्कि समाज से जुड़े हर उस व्यक्ति की है जो न चाहते हुए भी हर क़दम पर परिवार के सदस्यों से ही ठोकरें खाता है। शर्म उन्हें भी आनी चाहिए जो इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। 

साहित्यकार व्यंग्यकार हो और साहित्य के ऊपर कोई रचना न लिखे, यह तो सम्भव ही नहीं है। ‘पुरस्कार ले लो, पुरस्कार’ के अंतर्गत साहित्यिक पुरस्कारों की पोल खोलने का ईमानदारी से प्रयास किया गया है। एक ही लेखक को न जाने कितने प्रकार के पुरस्कारों से लाद दिया जाता है और उनमें से बहुत से पुरस्कृत हुए व्यक्ति एक खच्चर का रूप धारण कर लेते हैं। हमारे देश में पुरस्कारों की इज़्ज़त अधिक है न कि लेखकों या उनकी रचनाओं की। जिसे पुरस्कार नहीं मिला वो लेखक की श्रेणी में गिना ही नहीं जाता। 

‘माफ़ कीजिए श्रीमान’ व्यंग्य संग्रह में ‘मर्द की नाक’, ‘अमीर आदमी और पट्टे वाला कुत्ता’, ‘चुनावों की कढ़ाही और वोटों के पकौड़े’, ‘राजा साहब की नींद’, ‘विचारधारा की दही और बेपेंदी का लोटा’, ‘लड़की नये जमाने की’, ‘सोशल मीडिया पर प्रेम उर्फ़ . . . ’ जैसे व्यंग्य गुदगुदाते भी हैं और समाज की असलियत भी बताते हैं। सुभाष चंदर के व्यंग्यों में सुलझी हुई और चमक होती है जिससे हम उनके व्यंग्यों की पृष्ठभूमि को आसानी से पहचान लेते हैं। उनके व्यंग्यों के भीतर की गहराई हमारे मन के भीतर चुपके-चुपके प्रवेश कर जाती है और इसी विशेषता के कारण उनका प्रत्येक व्यंग्य हमें लंबे समय तक याद रहता है। 

पुस्तक का आवरण अपने आप में वर्तमान की राजनीति को इंगित करता है, इसे नीरज ने तैयार किया है। लेखक ने समर्पण में लिखा है, “अपने उन सभी पाठकों को समर्पित जिन्हें यह ग़लतफ़हमी है कि मैं जब भी लिखूँगा, अच्छा ही लिखूँगा . . . ”, इस तरह नेपथ्य में वे अपनी कमियाँ स्वयं ही स्वीकार करते हैं। 

मुकेश पोपली
‘स्वरांगन’, ए-38-डी
करणी नगर, पवनपुरी
बीकानेर-334003
मो: 7073888126
ई-मेल: SWARANGAN38@GMAIL.COM
 

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