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महँगाई देवी से विपक्ष का साक्षात्कार

“मैं आ सकती हूँ?” 

“तुम वैसे भी आ चुकी हो। तुम जब इच्छा करती हो, आ जाती हो। महँगाई देवी, तुम्हें कोई टोक सकता है क्या?” 

“मुझे टोकने वाले तो बहुत हैं लेकिन, जिसके सिर पर साईं का हाथ हो, उससे पंगा कौन ले?” 

“साईं! कौन साईं? 

“अरे तुम साईं का मतलब नहीं समझते। कैसे विपक्षी नेता हो?” 

“साईं बाबा! तुम भी धर्म का खेल खेलती हो?” 

“खेल तो मैं बहुत खेलती हूँ और देखती भी हूँ लेकिन, तुम मुझे धर्म-अधर्म के चक्कर में न उलझाओ। वो काम साईं के लिए रहने दो।” 

“साईं! मतलब तुम्हारे पति! तुम क्या शादीशुदा हो?” 

“तुम एक काम करो, अपने आपको लापरवाह घोषित कर दो। तुम्हें जनता का सेवक कहलाने का कोई अधिकार नहीं है। अरे भोले विपक्षी, जिसके सर पर ताज होता है, वही मेरा साईं। साईं का अर्थ है सत्ताधीश। कुछ समझ में आया हो तो आगे बात करना, वरना मैं चली।” 

“यहाँ से तो चली जाओगी लेकिन देश में तुम्हें लेकर जो हाय तौबा मची हुई है, वहाँ से जाओ तब मानें। ख़ैर, तुम एक बात बताओ। तुम्हारी उत्पत्ति में किसका हाथ है मतलब तुम्हारा जन्म कैसे हुआ, किसके यहाँ हुआ, तुम्हारे माँ-बाप का क्या नाम है?” 

“तुम्हें इतने सारे प्रश्न एक साथ पूछते हुए शर्म नहीं आती? मुझे तुम पर बहुत तरस आता है इसलिए, मैं तुम्हारे सारे सवालों के जवाब दूँगी। मेरा जन्म तब हुआ जब पैसा और वस्तु दोनों इश्क़ कर बैठे। किसी ज़माने में वस्तु की सहेलियाँ होती थीं और वह एक-दूसरे के घर बड़े आराम से चली जाया करती थीं। उसके बाद एक दिन उसके सामने पैसा आ गया और वस्तु का उसके साथ न ख़त्म होने वाला रोमांस शुरू हो गया। इन दोनों के कारण ही मेरा जन्म हुआ।” 

“तुम्हारा बचपन कैसे गुज़रा?” 

“बचपन मेरा काफ़ी शांत रहा। मैं पढ़ने-लिखने में तेज़ थी। दूसरे बच्चों की तरह मुझे भी खेलने कूदने का शौक रहा। मुझे रस्सी कूदना पसंद था। जब मैं सबको हरा देती तो मुझे बहुत ख़ुशी होती थी। फिर एक दिन मेरे माँ-बाप ने मुझे बहुतेरा समझाया कि इतनी जल्दी-जल्दी ऊँचे कूदोगी तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। तुम्हारी लंबाई बढ़ जाएगी और तुम सामान्य लोगों से अलग दिखोगी। लेकिन मैं नहीं मानी।” 

“तो तुम ज़िद्दी भी हो?” 

“नहीं, दरअसल मैंने देख लिया था कि पूँजीवादी देशों में लोगों की लंबाई ज़्यादा ही होती है। मुझे वहीं तो रहना था।” 

“फिर तुम भारत क्यों आ गई?” 

“यह ठीक है कि पूँजीवादी वातावरण में मैं पली-बढ़ी लेकिन मुझे भी तो दुनिया में घूमना पसंद है। पूँजीवादी देश में मुझे परेशानी नहीं होती लेकिन भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था है इसलिए बहुत से लोग मुझसे परेशान रहते हैं। अब यहाँ मेरे साईं का दृष्टिकोण पूँजीवादी है और मेरे आने से वे ख़ुश हो जाते हैं, इसलिए मुझे यहाँ अच्छा लगता है।” 

“अकेली होकर भी तुमने हिम्मत नहीं हारी।” 

“हिम्मत वो हारते हैं जिनके ऊपर कोई साईं नहीं होता। तुमने देखा ही होगा कि मुझे रोकने के लिए तुम लोगों ने कितने हथकंडे अपनाए। लेकिन एक मेरे साईं हैं जिन्होंने मुझे पूरी ‘सिक्योरिटी’ दी और मैं आगे बढ़ती रही।” 

“मुझे एक बात समझ में नहीं आ रही है कि हमारे समय में तो तुम तीर की गति से आगे नहीं बढ़ी। तुम्हें जब रोका तब तुम रुकी भी या फिर धीरे-धीरे क़दमों से बढ़ी लेकिन अब तो तुम तौरई की बेल की तरह चढ़ती ही जा रही हो।” 

“तुम्हें एक बात बताऊँ, बुरा नहीं मानना। तुमने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, तुमने किसानों के क़र्ज़े माफ़ किए, तुमने शेयर मार्केट और डॉलर को भी कंट्रोल में रखा। वैसे तुमने मेरे स्वास्थ्य का भी ध्यान रखा और कभी-कभी मुझे ढील भी दी। लेकिन बस, वहीं से गड़बड़ हो गई। कुछ लोगों ने शोर मचाया और कहा कि महँगाई तो डायन है और यह सत्ता वाले सब राक्षस। हमें सत्ता में लाइए, सब ठीक हो जाएगा। जनता उनके बहकावे में आ गई। लेकिन वो सब पूँजीवादी थे। उन्हें अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे देश अच्छे लगते थे। वो चाहते थे कि जिनके पास पैसा है उनके पास और पैसा आए। उन्हें चंदा मिलता रहे और वो तुम्हारी पार्टियों के लोगों को लालच देकर अपनी पार्टी में शामिल करते हुए एकछत्र राज्य करें।” 

“हाँ, तुम्हारी बात तो ठीक है। तुम हमारे लिए क्या संदेश दोगी?” 

“अगर सब विपक्षी पार्टियाँ एक हो जाएँ, पद का लालच छोड़कर देश को आगे बढ़ाने के लिए मिलकर चुनाव लड़ें तो वो दिन दूर नहीं जब वर्तमान सत्ताधीश हट जाएँ और मैं भी।” 

“तुम्हारा क्या होगा?” 

“तुम लोग बहुत भावुक हो इसलिए ही जब तुम शोर मचाते हो तो मुझे अच्छा भी लगता है। वैसे मेरा क्या है, अभी तो रूस और यूक्रेन में युद्ध के कारण कुछ बरस तो मैं वहीं गुज़ार दूँगी। अब जल्दी से एक कप चाय पिला दो और कुछ केक-पेस्ट्री भी। मैं इतनी भी निर्दयी नहीं हूँ कि तुम मेरे मुँह से चाय भी छीन लो।”

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