औक़ात
कथा साहित्य | लघुकथा के.पी. सक्सेना 'दूसरे'16 Oct 2007
“शादी के पच्चीस बरस बाद जब बेटी के विवाह का समय आ गया है, तब अचानक तुझे अलग होने की यह क्या सूझी है?”
“अभी पिछले हफ़्ते ही तो तूने बताया था कि समाचार-पत्र में मेट्रोमोनियल देने के लिए उससे कहा है और यह कह कर छेड़ा भी था कि जल्दी करो वर्ना बेटी भी कहीं अपने माँ-बाप की तरह किसी विधर्मी से शादी रचाकर आशीर्वाद लेने न चली आए।” चुप देखकर सहेली ने उसे उकसाया।
इस बार उसने अपना सर उठाया और आग्नेय नेत्रों से सहेली की ओर देखते हुए, व्यंग्यात्मक लहजे से बोली- “हाँ! कल ही तो ’वैवाहिकी’ में छपा है।”
“तो!” सहेली उसके लहजे का आशय न समझ पायी।
“तो क्या! जनाब को बेटी के लिए एक स्वजातीय वर की तलाश है।” अब उसका स्वर जरा और तीखा हो गया था - “ये नहीं लिखा कि माँ की या बाप की! उस समय तो जाति-धर्म सब पुरानपंथी बातें थीं..... इंसानों के बीच भेदभाव बनाए रखने की कठमुल्लई साज़िश! अब क्या हुआ? बात जब बेटी की आयी तो.... आ गए औकात पर।
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